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अणुव्रत-दृष्टि
आशा और विश्वासकी प्रकाशमय किरणोंका दर्शन करा सकें। सरकार का कहना है कि उसके सामने ऐसी २ विकट समस्याएं उपस्थित हैं जो राष्ट्रके अस्तित्वको ही खतरा पहुंचानेवाली हैं। वह उनमें उलझी हुई है। उनमें किस समस्याका संतोष जनक हल हो पाया है, यह एक अलग प्रश्न है। हां मुझे यह तो मानना ही होगा कि सरकार कानून बनाकर भी तबतक उसे असली जामा नहीं पहना सकती जबतक जनताका हार्दिक सहयोग नहीं मिले। जनताके नैतिक स्तरको ऊँचा करनेका बीड़ा सरकारी क्षेत्रके बाहरके लोग भी उठा सकते है । हर्षका विषय है कि इस ओर सक्रिय कदम उठने लगा है। सर्वोदय समाजके संचालक प्रयत्न कर रहे हैं । केदारनाथजीके नेतृत्व में व्यवहार-शुद्धि मण्डलकी स्थापना हुई। उनका यह कहना सर्वथा ठीक है "जब चोरबाजार वाले स्वार्थ सिद्धिके लिये संगठन कर सकते हैं तो सज्जन प्रकृतिके क्यों नहीं ? कारण यही है कि ईमानदार बननेकी तीव्र भावना बहुत कम लोगों में है ।" आचार्य श्री तुलसीगणिजीका सत्प्रयत्न भी इसी दिशाका सूचक है । एक सच्चा जैन कभी यह शिकायत नहीं करता कि जब
मानेकी हवा ही बिगड़ी हुई है तो वह अकेला क्या करे ? जैन-धर्म व्यक्तिकी स्वतन्त्रता और व्यक्तिके सुधार में पूरा विश्वास रखता है । उसकी धारणा है कि व्यक्तिके सुधारसे ही समाजका सुधार हो सकता है। जैन धर्मने निवृति और संयमपर जो जोर दिया है उसका आशय भी यही है कि व्यक्ति दोषोंसे बचता हुआ अपनी आत्माको शुद्धकर सत्कार्यों में प्रवृत्ति हो । दोष निवृतिसे सत्यप्रवृति संभव नहीं । इस विषय में श्रद्धेय पंडित सुखलालजीने (Pacifism and Jainism) में बड़ा अच्छा प्रकाश डाला है ।
“हमें पूरा विश्वास है कि जिन सद् गृहस्थोंने दिल्लीमें अपने सामाजिक व्यवहारको नैतिक दृष्टिसे शुद्ध बनानेकी प्रतिज्ञा की है, वे अपने कर्त्तव्यको पूरी तरह समझते हैं । वे जानते हैं कि जैन गृहस्थ जब अपने धर्मगुरुके सामने कोई नियम या पचक्खान लेता है तो
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