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अनुकम्पा
प्रवृत्ति का निरोध है, इसका स्वरूप निरोधात्मक है पर भाव दया में इसी का विधायक स्वरूप प्रस्फुटित होता है। कुप्रवृत्ति के नियमन और सुप्रवृतियों के उत्कर्ष से ही आत्म-विकास अबिलम्ब हो सकता है ।
स्वदया :
जीवात्मा अनादिकाल से
संसार में परिभ्रमण करता आ रहा है । तिस पर भी उसे सुख एवं विराम नहीं मिला । इसका कारण परभूत जड़तत्व की आसक्ति है अत: इस दुःख मूल आसक्ति का उच्छेद कर स्वभाव में लीन होना ही निज सुख तथा शान्ति की प्राप्ति है- यही स्व-दया है एक दृष्टि से तो दया मात्र ही स्व- दया है । दया दया के पात्र ( जिस पर दया की जाय) का उपकार करती है सही पर उससे अधिक दया के कर्त्ता का । दया का पूर्ण एवं शुद्ध पालन ही तो आत्मिक विकास तथा परम शान्ति का राजमार्ग है ।
परदया :
दया का व्यवहारिक या प्रचलित अर्थ पर दया से है । किसी भी दूसरे प्राणि के सुख वृद्धि या दुख निवारण की क्रिया को परया में सम्मिलित करते हैं। ऐसे मन्तव्य से शायद ही किसी का विरोध हो । पर परदया की सूक्ष्म मिमांसा में हम यहाँ पर नहीं रुक सकते। कई प्रश्न या शंकायें उपस्थित होती हैं। इनका समाधान करना आवश्यक है । दया दूसरे प्राणियों के सुख वृद्धि की चेष्टा है या इससे बेहतर, दूसरे प्राणियों के दुःख निवारण का प्रयत्न । पर अब प्रश्न यह उठता है कि इस सुख या दुःख का वास्तविक स्वरूप क्या है ? इस स्वरूप का निर्णय कौन करे ? क्या वह जो दया का पात्र है या वह जो दया का कर्त्ता ? दया का पात्र कौन है ? क्या किसी की प्राण रक्षा ही दया है ? क्या वह दया जिसमें एक के सुख के लिये दूसरे को दुःख हो करणीय है ? इन प्रश्नों के विवेचन से यह
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