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अनुकम्पा
दया के भेद :
जैन दर्शनानुसार दया को चार मुख्य भागों में विभक्त किया जा सकता है। ये भेद निम्मांकित हैं।
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द्रव्य दया :
जीव मात्र को मानसिक कायिक या वाचिक कोई भी प्रकार का कष्ट देने से दुःख की अनुभूति होती है इस दुःख से त्राण पाने की वह सतत चेष्टा करता है अतः “आत्मवत् सर्व भूतेषु,” ऐसा समझ कर विवेकशील मनुष्य अन्य प्राणियों को मानसिक वाचिक या कायिक कोई भी प्रकार का कष्ट पहुंचाने में हिचकेगा । जिस सीमा तक वह अन्य जीवों को कष्ट नहीं पहुंचाता उसी सीमा तक वह दया का पालन करता है । यही द्रव्य दया है । निज के सुख, पारिवारिक स्वार्थ या देश या जाति हित के लिये भी अन्य प्राणियों को कष्ट देना या उन्हें प्राणच्युत करना द्रव्य दया का लोप है-क्रूरता है ।
भाव दया :
विकास भेद के अनुसार हम प्राणियों के दो भेद कर सकते हैं। एक वे, जिनकी सुख कल्पना वाह्य पौद्गलिक पदार्थों तक ही सीमित है और एक वे जो पौद्गलिक सुखों के अनित्य भाव को समझ कर शाश्वत आत्मिक सुख प्राप्ति का उद्योग करते हैं। आत्म गुणों के विकाश से ही आत्मिक सुख प्राप्त होता है ।। इस तथ्य को हृदयंगम कर इसे प्राप्त करने या अन्य जीवों के आत्मिक सुख प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त तथा निष्कंट करने में ही भाव दया है। सच है "आत्म गुण अविराधना भाव दया भण्डार" । द्रव्य दया का रूप स्थूल है । साधारण बुद्धि भी इसे ग्रहण कर सकती है पर भाव दया के तत्व को समझने के लिये मानस का पर्याप्त विकास अनिवार्य है- आत्म चिंतन की भी आवश्यकता है । एक और भेद ध्यान देने योग्य है । द्रव्य दया में
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