________________
६४
अनुकम्पा
मिकलता है कि परदया के भी दो उपभेद करने आवश्यक हैअदोष एवं दूसरा सदोष या शास्त्रीय भाषा में कहें तो सावद्य तथा निस्वधः ।
सर्वोत्कृष्ट दया :
यह
करता है । पर हमें चाहिये। मुंह देखी
दया पर सदोषता का आरोप बहुतेरे मनुष्यों को अखरेगा । is far मान्य विचारों पर कुठाराघात भावावेष में न पड़कर सत्यासत्य का निर्णय करना कहने में तो सत्य' का गला घोंटना ही पड़ता है। सत्य और वह भी मनोमुग्ध यह तो सोने में सुगन्ध का मेल है । यह अति दुष्प्राप्य है । संस्कृत में एक उक्ति है, 'सत्यं मनोहारि वचो हि दुर्लभम्' | हम यह मी जानते हैं कि सत्य और वह भी एक अनूठे सत्य का तिरस्कार प्रायः हुआ ही करता है । इतिहास का इतिहास इसकी साक्षी में पेश है । पर हमें यह हर समय स्मरण रखना चाहिये कि उच्च आदर्श लोक रुचि का अन्धाधुन्ध अनुसरण नहीं करता पर शुद्ध रुचि निर्माण की चेष्टा करता है । लोक रुचि का अनुसरण तो निम्न स्तर की राजनीति मात्र है - इसमें धार्मिक विचारों की उच्चता एवं गम्भीरता कहाँ ? पुरुषार्थ इसी में है कि लोक रुचि को शुद्ध आदर्श ढांचे में ढालने की चेष्टा करें
कि उसी ढांचे में स्वयम् ढल जांय ।
ऊपर पर दया के सम्बन्ध में उठाये गये प्रश्नों को व्यतिक्रमानुसार लेकर अंतिम प्रश्न पर हम यहां कुछ विवेचन करते हैं । प्राणधारी की हत्या करना या उसे कष्ट देना क्रूरता है- पाप है; यह शायद ही किसी को अमान्य हो । जैन धर्म की अहिंसा मूल प्रवृत्ति में से तो बराबर ही ध्वनि मुखरित होती है । अतः दशवेकालिक सूत्र की एक गाथा को उद्धृति करना ही पर्य्याप्त होगा ।
" सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिजिउं । तन्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com