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पाँचवाँ अध्ययन]
अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं ।
हुज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि य संसओ।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद
प्रतिकूल जगह में बार-बार, भिक्षा हेतु जाने के कारण।
हो कष्ट महाव्रत पालन में, संदिग्ध हो साधुता का धारण ।। अन्वयार्थ-अणाययणे = वेश्याओं का मौहल्ला धर्म का आयतन नहीं है, अतः । चरंतस्स = उसमें गमन करने वाले साधु को। अभिक्खणं = बार-बार के । संसग्गीए = संसर्ग से । वयाणं = मुनियों के व्रतों को । पीला हुज्ज (होज्ज) = बाधा पीड़ा हो सकती है । सामण्णम्मि य = और उसके श्रमण जीवन में । संसओ = संशय उत्पन्न हो सकता है।
भावार्थ-साधना-विरोधी स्थानों में चलने वालों को और बार-बार उनका संसर्ग करने वालों को स्मरण-दर्शन आदि दोष उत्पन्न होने की आशंका रहती है। जैसा कि कहा गया है
स्मरणं कीर्तनं केलिः, प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।
संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिवृत्तिरेव च ।। इसमें बताये गये मैथुन के आठ अंगों में संसर्ग से ब्रह्मचर्य व्रत को पीड़ा होती है। व्रत की पीड़ा से संयमी को श्रमण-धर्म में सन्देह होने लगता है।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइ-वड्डणं ।
वज्जए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद
अतः एव दुर्दशावर्द्धक इन, दोषों का करके ज्ञान श्रमण ।
छोड़े वेश्या के पाड़े को, एकान्त मोक्ष में दे निज मन ।। अन्वयार्थ-तम्हा = इसलिये । दुग्गइवड्ढणं = दुर्गति बढ़ाने वाले । एयं = ऊपर बताए गए इस । दोसं = दोष को । वियाणित्ता = जानकर । एगंतमस्सिए = एकान्त मोक्ष मार्ग का अभिलाषी। मुणी = आत्मार्थी मुनि । वेससामंतं = वेश्याओं के मुहल्ले में । वज्जए = जाना छोड़ देवे ।
भावार्थ-इसलिए दुर्गति बढ़ाने वाले इस दोष को जानकर एकान्त मोक्षमार्ग का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या-पाड़े को छोड़ देवे।
साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए ।।12।।