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[अंतगडदसासूत्र तदनन्तर उस गजसुकुमाल कुमार को कृष्ण-वासुदेव और माता-पिता जब बहुत-सी अनुकूल और स्नेह भरी युक्तियों से भी समझाने में समर्थ नहीं हुए तब निराश होकर श्रीकृष्ण एवं माता-पिता इस प्रकार बोले-“यदि ऐसा ही है तो हे पुत्र! हम एक दिन की तुम्हारी राज्यश्री (राजवैभव की शोभा) देखना चाहते हैं। इसलिये तुम कम से कम एक दिन के लिये तो राजलक्ष्मी को स्वीकार करो।"
माता-पिता एवं बड़े भाई के इस प्रकार अनुरोध करने पर गजसुकुमाल चुप रहे। इसके बाद बड़े समारोह के साथ उनका राज्याभिषेक किया गया। गजसुकुमाल के राजगद्दी पर बैठने पर माता-पिता ने उनसे पूछा- “हे पुत्र ! अब तुम क्या चाहते हो ! बोलो।" गजसुकुमाल ने तब उत्तर दिया-“मैं दीक्षित होना चाहता हूँ।" तब गजसुकुमाल की इच्छानुसार दीक्षा की सभी सामग्री मंगाई गई। ‘दीक्षा सम्बन्धी निष्क्रमण' ‘एवं आज्ञानुसार संयम पालन में उद्यत हुए।' यहाँ तक का वर्णन महाबल के समान समझना।
सूत्र 20
मूल- तए णं से गयसुकुमाले अणगारे जंचेव दिवसं पव्वइए तस्सेव दिवसस्स
पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव अरहा अरिडणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अरहं अरिडणेमिं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे महाकालंसि सुसाणंसि एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' तए णं से गयसुकुमाले अणगारे अरहया अरिट्ठणेमिणा अब्भणुण्णाए समाणे अरहं अरिट्ठणणेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिठ्ठणेमिस्स अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव महाकाले सुसाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चारपासवण-भूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता ईसिं पब्भारगएणं कारणं
जाव दो वि पाए साहट्ट एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। संस्कृत छाया- तत: स: गजसुकुमाल: अनगार: यस्मिन् एव दिवसे प्रव्रजित: तस्यैव दिवसस्य
पूर्वापराह्नकालसमये यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, अर्हन्तमरिष्टनेमिं त्रि:कृत्य आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा एवमवदत्-इच्छामि