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तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ]
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तत् इच्छाम: ते हे जात ! एकदिवसमपि राज्यश्रियम् द्रष्टुम् । ततः सः गजसुकुमाल: अनगार: जात: ईर्यासमितः यावत् गुप्तब्रह्मचारी । निष्क्रमणम्, यथा महाबलस्य यावत् तदाज्ञायां यावत् संयतिव्यः ।
अन्वयार्थ - तए णं से गयसुकुमाले कुमारे कुछ समय के बाद वह गजसुकुमाल कुमार, कण्हं वासुदेवं अम्मापियरो = कृष्ण वासुदेव और माता-पिता को, य दोच्चंपि तच्चं पि = दूसरी-तीसरी बार भी, एवं वयासी - = इस प्रकार बोले-, एवं खलु देवाणुप्पिया ! = 'इस प्रकार हे देवानुप्रिय !, माणुस्सया कामा असुइ = मनुष्य के कामभोग अपवित्र हैं, असासया, वंतासवा = अस्थायी हैं, मलमूत्र वमन के स्रोत हैं, जाव विप्पजहियव्वा भविस्संति = ये एक दिन अवश्य छोड़ने होंगे। "
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तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! = इसलिए हे देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ, तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे = कि आपकी आज्ञा पाकर, अरहओ अरिट्टणेमिस्स अंतिए = भगवान अरिष्टनेमि के पास, जाव पव्वइत्तए = प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण कर लूँ ।
तणं तं सुकुमालं कुमारं = तब उस गजसुकुमाल कुमार को, कण्हे वासुदेवे अम्मापियरो य = कृष्ण वासुदेव और माता-पिता, जाहे नो संचाएड़ बहुयाहिं अणुलोमाहिं = जब बहुत-सी अनुकूल एवं स्नेहभरी, जाव आघवित्तए = युक्तियों से समझाने में समर्थ नहीं हुए।
ताहे अकामा चेव एवं वयासी - = तब न चाहते हुए भी इस प्रकार बोले-, तं इच्छामो णं ते जाया ! = “यदि ऐसा ही है तो हे पुत्र !, एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए = हम चाहते हैं तुम्हारी एक दिन की राज्य लक्ष्मी को देखना” (गजसुकुमाल ने उनकी आज्ञा स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण की), णिक्खमणं जहा महब्बलस्स जाव = दीक्षा सम्बन्धी निष्क्रमण महाबल, तमाणाए तहा जाव संजमित्तए = समान यावत् आज्ञानुसार संयम पालन में उद्यत हुए। तए णं से गयसुकुमाले अणगारे = तब वह गजसुकुमाल कुमार, जाए इरियासमिए = अनगार हो गये और ईयासमिति वाले, जाव गुत्तबंभयारी
= यावत् गुप्त
ब्रह्मचारी बन गये ।
भावार्थ-कुछ समय मौन रहने के बाद गजसुकुमाल अपने बड़े भाई कृष्ण वासुदेव एवं माता-पिता को दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार बोले- “हे देवानुप्रियों ! वस्तुतः मनुष्य के कामभोग एवं देह अपवित्र, अशाश्वत क्षणविध्वंसी और मल-मूत्र - कफ-वमन - पित्त - शुक्र एवं शोणित के भण्डार हैं। यह मनुष्य शरीर और ये उसके कामभोग अस्थिर हैं, अनित्य हैं एवं सड़न - गलन एवं विध्वंसी होने के कारण आगे-पीछे कभी न कभी अवश्य नष्ट होने वाले हैं। एक दिन देर-सबेर ये छूटने वाले हैं।"
“इसलिए हे देवानुप्रियों ! मैं चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा मिलने पर भगवान अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या (श्रमण-दीक्षा) ग्रहण कर लूँ ।"