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[ अंतगडदसासूत्र
चरण वन्दन के लिये शीघ्रता से आते हो, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ = इसलिये वे माताएँ धन्य हैं, जाव झियामि = यावत् आर्त्तध्यान करती हूँ ।
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भावार्थ-उसी समय वहाँ श्री कृष्ण वासुदेव स्नान कर यावत् वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर देवकी माता के चरण-वंदन के लिये शीघ्रतापूर्वक आये । तब वे कृष्ण वासुदेव देवकी माता के दर्शन करते हैं, दर्शन कर देवकी के चरणों में वन्दन करते हैं । उन्होंने अपनी माता को उदास और चिन्तित देखा तो चरण - वन्दन कर देवकी देवी को इस प्रकार पूछने लगे - "हे माता ! पहले तो मैं जब जब आपके चरण-वन्दन के लिये आता था, तब-तब आप मुझे देखते ही हृष्ट-तुष्ट यावत् आनन्दित हो जाती थीं, पर माँ ! आज आप उदास, चिन्तित यावत् आर्त्तध्यान में निमग्न सी क्यों दिख रही हो ? हे माता ! इसका क्या कारण है ? कृपा करके बतावें।” कृष्ण द्वारा इस प्रकार का प्रश्न किये जाने पर वह देवकी देवी कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार कहने लगी - " हे पुत्र ! वस्तुत: बात यह है कि मैंने समान आकार यावत् समान रूप वाले सात पुत्रों को जन्म दिया । पर मैंने उनमें से किसी एक के भी बाल्यकाल अथवा बाल-लीला का अनुभव नहीं किया । पुत्र ! तुम भी छ: छ: महीनों के अन्तर से मेरे पास चरण-वंदन के लिये आते हो इसलिये मैं ऐसा सोच रही हूँ कि वे माताएँ धन्य हैं, पुण्य शालिनी हैं जो अपनी सन्तान को स्तनपान कराती हैं, यावत् उनके साथ मधुर आलाप-संलाप करती हैं, और उनकी बाल क्रीड़ा के आनन्द का अनुभव करती हैं। मैं अधन्य हूँ अकृत- पुण्य हूँ । यही सब सोचती हुई मैं उदासीन होकर इस प्रकार का आर्त्तध्यान कर रही हूँ।"
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सूत्र 12
मूल
संस्कृत छाया
तए णं से कण्हे वासुदेवे देवई देविं एवं वयासी - मा णं तुब्भे अम्मो ! ओह जाव झियायह। अहण्णं तहा वत्तिस्सामि जहा णं ममं सहोयरे कणीयसे भाउए भविस्सइ त्ति कट्टु देवई देविं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव वग्गूहिं समासासेइ, समासासित्ता तओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जहा अभओ, नवरं हरिणेगमेसिस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, जाव अंजलिं कट्टु एवं वयासी- इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सहोयरं कणीयसं भाउयं विदिण्णं ।
ततः खलु सः कृष्णः वासुदेवः देवकीं देवीम् एवम् अवदत्-मा खलु त्वमम्ब ! अवहता यावत् ध्याय । अहम् खलु तथा वर्तिष्ये यथा खलु मम सहोदरः कनीयान् भ्राता भविष्यति, इति कृत्वा देवकीं देवीं ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः यावत् वाग्भिः