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________________ 41) तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ] अन्वयार्थ-तए णं अरहा अरिट्ठणेमी = तदनन्तर अरिहन्त अरिष्टनेमि ने देवकी, देवइं देवीं एवं वयासी- = देवी को इस प्रकार कहा-, से नूणं तव देवई ! इमे = तो निश्चय ही हे देवकी! तुझे इन, छ अणगारे पासित्ता = छ: अनगारों को देखकर इस, अयमेयारूवे अज्झत्थिए = प्रकार का मतिभ्रम, जाव समुप्पज्जित्था = यावत् उत्पन्न हो गया है। एवं खलु पोलासपुरे = इस प्रकार पोलासपुर, नयरे अइमुत्तेणं = नगर में अतिमुक्त कुमार ने मुझे, तं चेव जाव णिग्गच्छसि = ऐसा कहा था और उसी प्रकार यावत् वन्दन को निकली, णिग्गच्छित्ता जेणेव = निकलकर जैसे ही, ममं अंतियं हव्वमागया से नूणं देवई देवी = शीघ्रता से मेरे पास चली आई हो। तब क्या निश्चय ही देवकी देवि ! अयमट्टेसमटे ? = यह अर्थ तुम्हारे द्वारा समर्थित है ? हंता ! अत्थि। = हे भगवन् ! ऐसा ही है। एवं खलु देवाणुप्पिए! = इस प्रकार हे देवानुप्रिये ? तेणं कालेणं तेणं समएणं = उस काल उस समय में, भद्दिलपुरे नयरे नागे नाम = भद्रिलपुर नगर में नाग नामक, गाहावई परिवसइ, अड्डे० = गाथापति रहा करता था, जो कि धन सम्पन्न (आढ्य) था। तस्स णं नागस्स गाहावइस्स सुलसा नामं भारिया होत्था = उस नाग नामक गाथापति के सुलसा नाम की भार्या थी। सा सुलसा-गाहावइणी बालत्तणे चेव निमित्तिएणं वागरिया- = उस सुलसा गाथापत्नी को बचपन में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहा-, एस णं दारिया णिंदू भविस्सइ = यह बालिका मृतवत्सा होगी। तए णं सा सुलसा बालप्पभिई = तब वह सुलसा बाल्यकाल, चेव हरिणेगमेसि = से ही हरिणैगमेषी, देवभत्ता यावि होत्था = देवभक्ता थी, हरिणेगमेसिस्स पडिमं करेइ, करित्ता =(उसने) हरिणैगमेषी की प्रतिमा बनाई, बना कर, कल्लाकल्लिं बहाया जाव = शास्त्रविधि से स्नान कर यावत्, पायच्छित्ता उल्लपडसाडिया = दुःस्वप्न निवारण को प्रायश्चित्त कर गीली साड़ी पहने हुए उसकी, महरिहं पुप्फच्चणं करेइ = महर्घ (उत्तमोत्तम) पुष्पों से अर्चना करती थी। करित्ता जाणुपायवडिया पणामं करेइ, तओ पच्छा = अर्चना करके घुटने व पैर टेककर (पंचांग) प्रणाम करती, इसके बाद, आहारेइ वा नीहारेइ वा = आहार नीहारादि करती। भावार्थ-तदनन्तर अर्हत् अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले-“हे देवकी! क्या इन छ: साधुओं को देख कर वस्तुत: तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार ने तुम्हें आठ अप्रतिम पुत्रों को जन्म देने का जो भविष्यकथन किया था, वह मिथ्या सिद्ध हुआ। उस विषय में पृच्छा करने के लिये तुम यावत् वन्दन को निकली और निकलकर शीघ्रता से मेरे पास चली आई हो, हे देवकी ! क्या यह बात ठीक है?" देवकी ने कहा-"हाँ भगवन् ! ऐसा ही है।" प्रभु की दिव्य ध्वनि प्रस्फुटित हुई-“हे देवानुप्रिये ! उस काल उस समय में भद्दिलपुर नगर में नाग नाम का गाथापति रहा करता था, जो आढ्य (महान् ऋद्धिशाली) था। उस नाग गाथापति की सुलसा नामक पत्नी थी। उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमितज्ञ ने कहा-यह बालिका मृतवत्सा यानी मृत बालकों को जन्म देने वाली होगी। तत्पश्चात् वह सुलसा बाल्यकाल से ही हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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