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तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ]
37} छट्टक्खमणपारणगंसि- = अत: हम आज बेले के तप के पारणे में, पढमाए पोरिसीए जाव = प्रथम प्रहर में (स्वाध्याय करके) यावत्, अडमाणा = विचरण करते हुए, तव गेहं अणुप्पविट्ठा = आपके घर में प्रविष्ट हुए हैं । तं नो खलु देवाणुप्पिए! = इस कारण नहीं है हे देवानुप्रिये !, ते चेव णं अम्हे = हम वे ही (पहले आये हुए) । अम्हे णं अण्णे = हम निश्चय ही दूसरे हैं । देवईं देवीं एवं वयइ = देवकी देवी को इस प्रकार मुनि कहते हैं । वइत्ता = कहकर, जामेव दिसंपाउन्भूए = जिस दिशा से प्रगट हुए थे। तामेव दिसं पडिगए = उसी दिशा में चले गये।
भावार्थ-देवकी देवी द्वारा इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर वे मुनि देवकी देवी से इस प्रकार बोले"हे देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण-वासुदेव की नगरी में श्रमण-निर्ग्रन्थ उच्च-नीच-मध्यम कुलों में यावत् भ्रमण करते हुए आहार-पानी प्राप्त नहीं करते और न ही मुनि जन भी आहार-पानी के लिये उन एक बार स्पृष्ट कुलों में दूसरी-तीसरी बार जाते हैं।
वास्तव में बात इस प्रकार है-“हे देवानुप्रिये! भद्दिलपुर नगर में हम नाग गाथापति के पुत्र और नाग की सुलसा भार्या के आत्मज छ: सहोदर भाई हैं, पूर्णत: समान आकृति वाले यावत् नल कुबेर के समान । हम छहों भाइयों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के पास धर्म-उपदेश सुनकर और उसे धारण करके संसार के भय से उद्विग्न एवं जन्ममरण से भयभीत हो।
मुंडित होकर यावत् श्रमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर हमने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की थी, उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदन-नमन किया और वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार का यह अभिग्रह धारण करने की आज्ञा चाही-“हे भगवन् ! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले-बेले की तपस्या पूर्वक अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं।” यावत् प्रभु ने कहा- “देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख हो वैसा ही करो, प्रमाद न करो।" उसके बाद अरिहंत अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवन भर के लिये निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे।
इस प्रकार आज हम छहों भाई-बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करने के पश्चात्-प्रभु अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर यावत् तीन संघाटकों में भिक्षार्थ उच्च-मध्यम एवं निम्न कुलों में भ्रमण करते हुए तुम्हारे घर आ पहुँचे हैं। तो देवानुप्रिये! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मुनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम ही हैं। वस्तुत: हम दूसरे हैं।"
उन मुनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये।