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[अंतगडदसासूत्र भावार्थ-उस काल उस समय में अर्थात् इस अवसर्पिणी के चतुर्थ आरक के अन्तिम समय में स्थविर आर्य सुधर्मा पाँच सौ साधुओं के परिवार सहित पूर्व परम्परा अर्थात् तीर्थङ्कर परम्परा के अनुसार विचरते तथा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में सुख पूर्वक विहार करते हए. उस चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे। नागरिकों के समूह आर्य सुधर्मा की सेवा में उपस्थित हुए। दर्शन, वन्दन के पश्चात् वे सभा के रूप में बैठे । परिषद् ने आर्य सुधर्मा का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर जन-समूह अपने-अपने स्थान को लौट गया।
___ उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के अन्तेवासी शिष्य आर्य जम्बू स्वामी ने अपने गुरु को सविधि सविनय वन्दन-नमन के पश्चात् उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछा- “हे भवभयहारी भगवन् ! यदि धर्म की आदि करने वाले विशेषण से लेकर सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त विशेषण से अलंकृत श्रमण भगवान महावीर ने सातवें अंग शास्त्र उपासक-दशा का यह अर्थ निरूपित किया है, तो हे पूज्यवर! अब आप मुझे यह बताने की कृपा कीजिये कि संसार से मुक्त हुए उन श्रमण भगवान महावीर ने आठवें अंग-शास्त्र अन्तकृद्दशा में किस विषय का प्रतिपादन किया है ?
टिप्पणी-थेरे (स्थविर)-स्थविर तीनप्रकार के होते हैं-(अ) वय स्थविर-जो कम से कम 60 वर्ष की उम्र का हो, (ब) दीक्षा स्थविर-जो कम से कम
20 वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला हो, (स) श्रुत स्थविर-जो स्थानांग व समवायांग सूत्र के 'मर्म' का जानकार हो। चम्पानगरी के भोगकुल, उग्रकुल, ब्राह्मण, क्षत्रिय, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि में से कोई भगवान को वन्दन करने के लिये, कोई पूजासत्कार, सम्मान व दर्शन के लिये तो कोई कुतूहल वश समवशरण में आये। भगवान का उपदेश सुनकर हृदय में धारण कर अनेकों ने जीवादि पदार्थों के सम्बन्ध में निर्णय करके अगार व अनगार धर्म को अंगीकार किया। परिषद् परम सन्तुष्ट होकर लौट गई। (उववाइय सूत्र) सुधर्मा स्वामी का जन्म वाणिजक ग्राम के पास कोल्लाग सन्निवेश में हुआ। धम्मिल्ल ब्राह्मण आपके पूज्य पिता एवं भदिल्ला आपश्री की माता थी। मध्यमा पावा के महासेन उद्यान में गौतम स्वामी के साथ ग्यारह गणधरों में आपकी भी भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा हुई थी। पचास वर्ष गृहवास में रहे। वीर निर्वाण के बाद बारह वर्ष छद्मस्थ रहे, आठ वर्ष केवली पर्याय का पालन कर एक सौ वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण कर्मों को क्षय करके सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हुए। आप स्वयं धर्म में स्थिर तथा दूसरों को भी स्थिर करने वाले थे अत: आपके लिये 'थेरे' विशेषण लगाया गया है। आपके गुणों का विशेष वर्णन श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध होता है, जिसे परिशिष्ट भाग में देखा जाना चाहिये। जाव और वण्णओ शब्दों का प्रयोग-जाव शब्द का अर्थ है यावत् यानी तब तक । इस शब्द से पाठ संकोच कर यह इंगित किया जाता है
कि इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन अन्यत्र किया गया है, उसे यहाँ समझ लेना चाहिये । प्रसंगवश इसका खुलासा इस प्रकार है1. सुहम्मे थेरे जाव पंचहिं । यहाँ 'जाव' शब्द से तात्पर्य-आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन पाठ जो ज्ञाताधर्मकथांग अध्ययन में “अज्ज सुहम्मे नाम
थेरे जाई सम्पन्ने, कुल सम्पन्ने-चउनाणोवगए" है वहाँ तक समझना चाहिये। 2. भगवया महावीरेणं, आइगरेणं जाव संपत्तेणं । यहाँ 'जाव' शब्द नमोत्थुणं के पाठ में आइगरेणं से लेकर संपत्तेणं तक जो भगवान के विशेषण पद
हैं उनका बोधक है। 'वण्णओ' शब्द का प्रयोग वस्तु का अर्थ प्रकट करने के लिए, विशेषता या उस पर प्रकाश डालने के लिए किया जाता है। वर्णनीय वस्तुएँ भी अनेक तथा उनके गुण भी अनेक है। जैसे राजा, रानी, नगर, पर्वत, उद्यान आदि। इनका वर्णन जिन-जिन स्थानों पर आया है, उनका भी संकेत होता है। अत: वस्तु स्थिति को समझाने तथा पाठों की पुनरावृत्ति न हो इसलिये 'जाव' और 'वण्णओ' शब्दों का बार-बार प्रयोग किया जाता है। परिसा णिग्गया जाव परिसा पडिगया-परिसा णिगया जाव परिसा पडिगया (परिषद् आई यावत् परिषद् लौट गई) उस वक्त की प्रचलित भाषा में परिसा-परिषद् शब्द नागरिक अथवा ग्रामीण जनों के अर्थ में प्रयुक्त होता था, जो भगवान का अथवा धर्माचार्यों एवं धर्मोपदेशकों का धर्मोपदेश सुनने के लिए अपने अपने घरों से निकल कर आते थे एवं धर्म श्रवण के पश्चात् पुन: लौट जाते थे।।2।।