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[ अंतगडदसासूत्र
साथ इतना ही रहने वाला है। देव किसी के भोग फल को न्यूनाधिक नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने देव से गजसुकुमाल
दीक्षित न होने पावे, ऐसी माँग नहीं की ।
आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा है- 'पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ।' पुरुषों ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो, बाहर मित्र कहाँ ढूँढ रहे हो। मनुष्य को अपने बल पर भरोसा नहीं है। इसलिए वह पर-बल का सहारा लेताफिरता है, परन्तु होता वही है जो कर्मानुसार होने वाला है। खण्ड साधना करते हुए भरत महाराज का जब चिलातों के अनार्य खण्ड में जाना हुआ तो अनार्यों ने मुकाबला किया। पराजित होने पर कुलदेव का स्मरण किया। उन्होंने आकर कहा कि ये चक्रवर्ती है । इनको हराना हमारा काम नहीं है। हम तुम्हारे प्रीत्यर्थ कुछ उपद्रव करते हैं। सात दिन तक देव मूसलाधर बरसते रहे, किन्तु भरत के मन में विचार आते ही जब सेवक देव उपस्थित हुए, तो म्लेच्छों के कुल देव क्षमा माँगकर चले गये । चिलातों को भरत की शरण स्वीकार करनी पड़ी। अतः कृष्ण का देवाराधन माता के सन्तोषार्थ ही समझना चाहिए ।
प्रश्न 33. दॆव वास्तव में कुछ नहीं देते। तब सुलसा को देवकी के पुत्र कैसे दिये ? क्या यहाँ भी कर्म ही कारण है ?
उत्तर- सुलसा को देवकी के पुत्र देने की बात में भी रहस्य है। सुलसा और देवकी के बीच कर्म का कर्ज था एवं देव उस बीच में आरोपी माना गया था। अतः उसने देवकी के पुत्र लेकर सुलसा को पहुँचा दिये। यदि सुलसा का लेना नहीं होता तो देव यह परिवर्तन भी नहीं कर पाता। सुलसा ने पुरुषार्थ किया उसके फलस्वरूप उसके पूर्व जन्म के रत्न हरिणेगमेषी के निमित्त से मिल गये । इसमें भी उसके कर्मानुसार फल भोग में देव, मात्र निमित्त बना है। मुख्य कारण कर्म ही है। मूल से यदि देव में कुछ देने की शक्ति होती, तो सुलसा के मृत पुत्रों को भी जीवित कर देता, किन्तु वैसा नहीं कर सका।
प्रश्न 34. सम्यग्दृष्टि श्रावक के लिए धार्मिक दृष्टि से देवाराधन करना और उसके लिए कोई तपाराधन करना उचित है क्या ?
उत्तर-धार्मिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि, देवाधिदेव अरिहंत को ही आराध्य मानता है। अन्य देव संसारी हैं। वे प्रमोद भाव से देखने योग्य हैं। दृढ़धर्मी व्रती श्रावक संसार के संकट में भी उनकी सहायता नहीं चाहता और उनको वंदन नहीं करता । अरणक श्रावक ने प्राणान्त संकट में जहाज उलटने की स्थिति आने पर भी कोई देवाराधन नहीं किया। उल्टे उसकी दृढ़ता से प्रसन्न होकर देव दिव्य कुण्डल की जोड़ी प्रदान कर गया। अंतगड़ का सुदर्शन श्रावक भी मुदग्र-पाणि यक्ष के सम्मुख सागारी अनशन कर ध्यान में स्थित हो गया, पर किसी देव की सहायता ग्रहण नहीं की ।
सम्यग्दृष्टि का दृढ़ निश्चय होता है कि असंख्य देवी- देवों का स्वामी इन्द्र जिनका चरण सेवक है, उन देवाधिदेव अरिहन्त की उपासना करने वाले को अन्य किसकी आराधना शेष रहती है। चिन्तामणि को पाकर भी फिर कोई काँच के लिए भटके, तो उसे बुद्धिमान् नहीं कहा जा सकता ।
प्रश्न 35. चक्रवर्ती खण्ड साधन करते समय देवाराधन के लिए अष्टम तप करते हैं और श्रावकों के लिए कुलदेव के पूजा की बात कही जाती है तो क्या वह ठीक नहीं है । उसका मर्म क्या है ? उत्तर-चक्रवर्ती छ: खण्ड साधना के समय 13 तेले करते हैं। यह खण्ड साधन की व्यवस्था है। इसमें किया गया अष्टम तप भी धार्मिक तप नहीं है। जैसे मण्डलपति राजाओं को शस्त्र बल और सैन्य बल से प्रभावित कर झुकाया जाता है, ऐसे ही अमुक खण्ड या देव को साधना में अष्टम तप के बल से आकृष्ट एवं प्रभावित किया जाता है। यह शाश्वत व्यवहार है । सम्यग्दृष्टि उन देवों को वंदनीय नहीं मानता।