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प्रश्नोत्तर]
255} श्रावकों के नित्य कर्म में कहीं भी कुल देव की पूजा का विधान नहीं मिलता, बल्कि आनन्द आदि श्रावकों ने तो यह स्पष्ट कर दिया है कि मुझे अरिहन्त देव के सिवाय अन्य किसी देव को वन्दन करना नहीं कल्पता । जैसा कि 'नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंत-चेइयाणिवा।' अधिक से अधिक वे कुल देव को मित्र-भाव से देख सकते हैं। सम्यग्दृष्टि या शासन रक्षक देवों का भी मित्र भाव से ही स्मरण किया जाता है। आराध्य या वंदनीय तो अरिहंत देव ही हैं। सम्यग्दृष्टि को अधिक से अधिक अरिहंत देव का ही स्मरण-भजन और आराधन करना चाहिए। इनके चरणों में अन्य सब देव आ जाते हैं। इनकी आराधना से धर्म का धर्म और अशुभ कर्म की निर्जरा से भौतिक लाभ भी अनायास ही मिल जाता है। यह अपने ही सत् पुरुषार्थ का फल है। कविवर विनयचन्द्र ने कहा है:
आगम साख सुणी छे एहवी, जो जिन सेवक हो सोभागी। आशा पूरे तेनी देवता, चोसठ इन्द्रादिक सोय हो सो.। श्रावक में यह दृढ़ विश्वास होने के कारण ही वह किसी सरागी देव की भक्ति नहीं करता । हाँ, कौटुम्बिक शान्ति के लिए वह किसी कुलाचार को कुलाचार के रूप में करे, यह दूसरी बात है। यहाँ कुटुम्ब की पराधीनता है, फिर भी वह किसी कुल देव की पूजा को पुण्य या धर्म नहीं मानता । इस प्रकार के सहायक को अपनी दुर्बलता मानता है।
सम्यग्दृष्टि धार्मिक-दृष्टि से केवल अरिहंत देव को ही आराध्य मानता है। अन्य सरागी देव को धर्म बुद्धि से मानना, पूजना या उनके लिए कोई तप करना सम्यग्दृष्टि उचित नहीं मानता । व्यवहार में जो चक्रवर्ती के खण्ड-साधन के तेले और भिन्न देव के स्मरणार्थ कोणिक या अभयकुमार का तप भी अविरत दशा में ही सम्भव होता है क्योंकि व्रती सम्यग्दृष्टि देव या दानव का भी सहयोग नहीं चाहता । उसके लिए शास्त्र में असहेज्ज कहा है (कुल परम्परा से किसी के घर में देवपूजा चालू भी हो, तो व्रती श्रावक उसको केवल कुलाचार ही मानता एवं समझता है।) मिथ्यात्वी देवी-देव की मान्यता तो गलत है ही, पर श्रावक सम्यग्दृष्टि देव को भी आराध्य बुद्धि से नहीं पूजता । अभयकुमार ने माता के दोहद को पूरा करने के लिए तप किया, पौषधशाला में ब्रह्मचारी होकर देव का स्मरण करता रहा, फिर भी सकाम होने से उन्होंने इसको धर्म करणी नहीं समझा । यह स्वार्थतप या सकाम तप ही माना गया । सकाम तप में भी धूप-दीप आदि का प्रयोग नहीं करके केवल तप और शान्ति के साथ में मन में चिन्तन करते हुये देव को वश में करना, उस समय की खास ध्यान देने योग्य बात है।
व्रती साधक तो निष्काम तप करते हैं। उन्हें सहज ही तपोबल से कुछ लब्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और बिना चाहे देव भी उनकी सेवा करने लगते हैं, जैसे हरिकेशी की तिन्दुकयक्ष सेवा करता रहा । कामदेव के चरणों में यक्ष नतमस्तक हुआ।
सम्यग्दृष्टि जन्म-मरण के बन्धन काटने के लिए तप-नियम करता है। देवी, देव स्वयं जन्म-मरण के चक्र में पड़े हुए हैं। हर्ष-शोक, संयोग-वियोग और सुख-दुःख उनको भी भोगने पड़ते हैं, तब भक्ति करने वालों को ये दुःख मुक्त क्या कर सकेंगे। अतः सम्यग्दृष्टि वीतराग परमात्मा को ही आराध्य मानता है क्योंकि वे हर्ष-शोक एवं दुःख से मुक्त हो चुके हैं।
प्रश्न 36. महारानी देवकी जब भगवान नेमीनाथ को वंदन करने को गई, तब समवसरण में उसके खड़ी-खड़ी सेवा करने का उल्लेख है। तो क्या पूर्व समय में स्त्रियाँ समवसरण में नहीं बैठती थी ? साध्वियों के लिए भी ऐसा कोई वर्णन है क्या?
उत्तर-शास्त्र में जहाँ-जहाँ भी किसी राणी या श्रेष्ठी पत्नी के सेवा का उल्लेख मिलता है, वहाँ स्पष्ट रूप से 'ठिया चेव पज्जुवासई' लिखा गया है। जैसे मृगावती और देवानन्दा के वर्णन में शास्त्रकार कहते हैं--'उदायणं रायं पुरओ कट्ट ठिइया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी.........विवरणं पज्जुवासइ।' भ. 9-6 ।। दोनों जगह साफ लिखा है कि मृगावती महाराज उदायन को और देवानन्दा ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे स्थित करके खड़ी-खड़ी ही सेवा करने लगी। 'स्थित्वा'