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[अंतगडदसासूत्र में न जाए। यहाँ नीच और उच्छित से नीच व उच्च, ये दो ही कुल बतलाये हैं। इसलिए नीच से निषिद्ध कुल समझना ठीक नहीं। निर्ग्रन्थ मुनि छोटे-बड़े सभी घरों में निस्संकोच भिक्षा करते थे। कारण वे अप्रतिबद्ध विहारी थे। इस प्रकार सामूहिक भिक्षा से अज्ञात जनों में धर्म का सहज प्रचार हो जाता था। धर्म प्रचार के लिए आज भिक्षा में उदार दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है। आचाराङ्ग सूत्र के अनुसार जैन साधु के लिए बारह कुल की गोचरी बताई गयी है।
वे कुल इस प्रकार हैं-(1) उग्रकुल, (2) भोगकुल, (3) राजन्यकुल, (4) क्षत्रिय कुल, (5) इक्ष्वाकु कुल, (6) हरिवंश कुल, (7) एष्य (गोपाल) कुल, (8) ग्राम रक्षक कुल, (9) गंडक नापित कुल, (10) कुट्टाक कुल, (11) वर्द्धकी कुल, (12) बुक्कस (तन्तुवाय) कुल । इस प्रकार के अन्य भी अदुंगुछनीय कुल में जैन मुनि भिक्षा ले सकते
(आचाराङ्ग श्रुतस्कन्ध 2, अध्ययन 1 उद्देशक 2, सूत्र 11) प्रश्न 29. देवकी के पुत्रों का हरिणेगमेषी द्वारा संहरण क्यों किया गया?
उत्तर-देवकी ने पूर्व जन्म में अपनी जेठानी के छः रत्न चुराये थे। उसके बदले में इसके छः पुत्र चुराये गये। उसके कृत कर्म का यह भोग था । कथा इस प्रकार है
सुलसा और देवकी पूर्व जन्म में देवरानी और जेठानी थी। एक बार देवकी ने सुलसा के 6 रत्न चुराकर भय वश किसी चूहे के बिल में डाल दिये। बिल में छुपाने का मतलब यह था कि खोजने पर कदाचित् मिल जाय, तो मेरी बदनामी नहीं हो और चूहों ने इधर-उधर कर दिया समझकर सन्तोष कर लिया जायगा । कदाचित् उनको नहीं मिले, तो कुछ दिनों के बाद मैं इन्हें अपना बना सकूँगी । संयोगवश वे रत्न देवरानी को मिल गये और उनकी नजरों में चूहा चोर समझा गया । कहा जाता है कि वह चूहा हरिणेगमेषी देव बना और पूर्वभव में देवरानी सुलसा के रत्न चुराने के कर्म के फलस्वरूप देवकी के पुत्रों का हरण हुआ। चूहे पर चोरी का दोष मँढा जाने के कारण 'हरिणेगमेषी' देव ने उन छः पुत्रों का हरणकर उन्हें सुलसा के पास पहुँचाया। हरिणेगमेषी' देव ही चूहे का जीव कहा गया है। देवकी ने जेठानी के रूप में रत्न चुराये। अत: उसको पुत्र रत्न की चोरी का फल भोगना पड़ा।
प्रश्न 30. अंतगड़दशा में वर्णित अतिमुक्तकुमार और भगवती सूत्रानुसार पानी में पात्र तिराने वाले एवन्ता मुनि एक हैं या अन्य । एक हैं तो उनकी संक्षिप्त घटना क्या है और किस शास्त्र में है?
उत्तर-पात्र तिराने वाले एवन्ता कुमार भगवान महावीर के शिष्य थे। वे अंतगड़ में वर्णित अतिमुक्त मुनि से भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं। घटना इस प्रकार है
वर्षा हो चुकने पर जब अतिमुक्त मुनि बगल में छोटा-सा रजोहरण और हाथ में पात्र लिये स्थविरों के साथ बाहर भूमिका गये हुए थे, तब जल्दी उठ जाने से उनको खड़ा रहना पड़ा, छोटे नाले को देखकर उन्हें बचपन की स्मृतियाँ हो आयी और उस समय वहाँ बहते हुए छोटे नाले को मिट्टी की पाल बाँधकर रोका । पात्र को पानी में डाला और उसे नाव बनाकर खेलने लगे। साथी स्थविर सन्तों ने जब उसे पात्र तिराते देखा तब उनको शंका हुई। भगवान से पूछा-“भगवान! आपका शिष्य अतिमुक्तकुमार श्रमण कितने भव करके सिद्ध होगा?" भगवान ने उत्तर में स्पष्ट कहा-“आर्यों ! मेरा अन्तेवासी अतिमुक्त मुनि इसी भव से सिद्ध होगा। इसकी तुम अवहेलना, निन्दा मत करो, किन्तु इसकी अग्लान भाव से वैयावृत्त्य
(भगवती शतक 5 उद्देशक 4) प्रश्न 31. अतिमुक्त (एवंता) कुमार ने जब दीक्षा ली तब कितने वर्ष के थे और इतने लघु वय के बालक को भगवान महावीर ने दीक्षा कैसे दी?
करो।"