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सन्दर्भ सामग्री ]
233} तब मेघकुमार अपने माता-पिता से बोला-हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म श्रवण किया, वह मुझे रुचिकर लगा, अतएव मैं आपकी अनुमति प्राप्त करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप मुण्डित होकर मुनि दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।
तब धारिणीदेवी इस अप्रिय, अमनोज्ञ वचन को सुनकर महान् पुत्र वियोग के मानसिक दुःख से पीड़ित हुई, और मूर्च्छित हो गयी। फिर उपचार से आश्वस्त होने पर बड़े दीन भाव से कहने लगी-हे पुत्र! तू मेरा इकलौता, इष्ट, कान्त, प्रिय एवं मनोज्ञ पुत्र है, श्वासोच्छ्वास के समान आनन्ददायक है। हम तेरा वियोग सहन नहीं कर सकते, अत: जब तक हम जीवित हैं, तब तक तुम मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों का उपयोग करके कुल की वृद्धि करो और हमारे काल-धर्म प्राप्त होने पर फिर संयम ले लेना।
___ इस पर मेघकुमार ने कहा-मनुष्य भव अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत और रोग, शोक, उपद्रव आदि से व्याप्त है। सड़न, गलन एवं विध्वंसन धर्म वाला है। आगे पीछे इसे अवश्य छोड़ना पड़ेगा, फिर कौन जानता है कि पहले कौन मरेगा। अतः हे पूज्यों! मुझे आज्ञा दीजिये।
माता फिर बोली कि तुम्हारा गुण, शील और यौवन सम्पन्न आठ राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ है। अतएव हे पुत्र! इनके साथ काम-भोग का उपभोग कर भुक्त भोगी होने के पश्चात् भगवान अरिष्टनेमि के समक्ष मुण्डित हो जाना । इस पर कुंवर ने कहा कि मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग जीवन को गिराने वाले, अपवित्र, अशाश्वत, वात, पित्त, कफ, शुक्र एवं शोणित युक्त हैं और इनको पहले ही त्यागना अच्छा है। आप मुझको संयम लेने की अनुमति देवें।
कुमार के युक्तियुक्त वचनों को सुनकर माता ने एक और दलील दी-"तुम्हारे पूर्वजों द्वारा अटूट संगृहीत द्रव्य है, उसे खूब खाओ और दानादि से दीन दुःखियों की सेवा करो।" इस पर कुमार ने निवेदन किया कि धनादि द्रव्य को अग्नि जला सकती है, चोर चुरा सकते हैं, राजा अपहरण कर सकता है। हिस्सेदार बँटवारा कर सकता है और मृत्यु आने पर वह छूट जाता है। ऐसी परिस्थितियों में नष्ट होने वाले इन पदार्थों पर कौन बुद्धिमान विश्वास कर सकता है? फिर मृत्यु का भी कोई भरोसा नहीं, अतः हे माता-पिता! मुझे संयम अंगीकार करने की आज्ञा दीजिये।
माता, कुमार के युक्ति संगत जवाब से निरुत्तर होकर अब संयम की कठिनाइयों का दिग्दर्शन कराती हुई कहती है कि संयम लेने की भावना प्रशंसनीय है, परन्तु उसका पालन करना अतिदुष्कर है। क्योंकि तुम सुकुमार हो, वहाँ प्रासुक भोजन आदि समय पर नहीं मिलते, शीत-उष्ण, रोग, आक्रोश आदि 22 कठिन परीषहों को जीतना, भिक्षा से जीवन निर्वाह करना, केश लुंचन, पैदल विचरण, भूमि शयन आदि-आदि संयम की क्रियाएँ दुस्साध्य हैं। इसलिये हे पुत्र! तू इस विचार को छोड़ दे। इस पर कुमार ने कहा-हे माता! संयम मार्ग कायर और कमजोर पुरुषों के लिए दुष्कर है, धीर-वीर-पुरुष के लिये इसका पालन दुष्कर नहीं है, अत: हे माता-पिता! मुझे संयमित होने की अनुज्ञा दीजिये। जब माता-पिता अनुकूल और प्रतिकूल वचनों से राजकुमार को समझाने में समर्थ नहीं हुए तो उन्होंने सबसे बड़ा प्रलोभन दिया कि हम तुम्हारी राजश्री' एक दिन के लिए देखना चाहते हैं। इस प्रस्ताव पर कुमार के मौन रहने से स्वीकृति समझ कर उनका राज्याभिषेक किया गया, राज्याभिषेक होने पर माता-पिता एवं प्रजाजन ने उनकी जय-विजय की और अर्ज की, कि अब आपकी क्या आज्ञा है ? तब मेघकुमार (राजा) ने कहा- “मेरी दीक्षा की तैयारी की जावे।" राज-भण्डार में से दीक्षा हेतु तीन लाख सौनेया निकाल कर दो लाख के ओघे पात्रे एवं एक लाख नापित को केश काटने के लिये दिये जावें।