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[अंतगडदसासूत्र कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर राजा ने आदेश दिया कि शीघ्र ही बन्दियों को मुक्त करो, नाप-तोल की वृद्धि करो, हस्तिनागपुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, शुद्ध करो। राजाज्ञा के अनुसार उक्त सारे कार्य किये गये। क्योंकि यह बालक राजा बल का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज था अतः इसका नाम “महाबल" रक्खा गया । महाबल का 1. क्षीरधात्री, 2. मञ्जनधात्री, 3. मण्डनधात्री, 4. क्रीडनधात्री और 5. अंकधात्री, इन पाँच धात्रियों द्वारा पालन किया जाने लगा। आठ वर्ष से कुछ अधिक उम्र होने पर कलाचार्य के पास भेजा, यावत् दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के समान भोग-भोगने में समर्थ हो गया। महाबल कुमार को भोग योग्य जानकर माता-पिता ने उसके लिये आठ उत्तम प्रासाद बनवाये, तत्पश्चात् शुभ मुहूर्त में समान त्वचा, उम्र, रूप, लावण्य और गुणों से युक्त एवं समान राजकुल से लाई गई उत्तम आठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण करवाया गया। विवाहोपरान्त महाबलकुमार के मातापिता ने अपनी आठों पुत्रवधुओं के लिए आठ-आठ करोड़ स्वर्णमुद्रा आदि अनेक वस्तुओं का प्रीतिदान दिया।
3. मेघकुमार की दीक्षा-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वमाी अनुक्रम से विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, वहाँ पधारे । जब राजगृह नगर की जनता अपार भीड़ के साथ एक ही दिशा में, एक ही ओर मुख करके जाने लगी तब मेघकुमार ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर पूछा-कि आज ये लोग एक ही दिशा में कहाँ जा रहे हैं? क्या कोई इन्द्र महोत्सव आदि तो नहीं है? तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा कि-देवानुप्रिय! राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में त्रैलोक्य पूजनीय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं, उन्हीं के दर्शन एवं उपदेश श्रवण करने ये लोग जा रहे हैं।
मेघकुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को लाने का आदेश दिया । मेघकुमार स्नान कर, वस्त्र आभूषण से अलंकृत हुए, तथा चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होकर सुभटों के विपुल समूह वाले, परिवार से घिरे हुए राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर गुणशील उद्यान के पास आये । अश्वरथ से नीचे उतर, छत्रादि अतिशय देख कर और पाँच प्रकार के अभिगम करके श्रमण भगवान महावीर के सम्मुख चले। सम्मुख आकर भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके स्तुति रूप वन्दन किया और काय से नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके भगवान के सम्मुख दोनों हाथ जोड़े, विनयपूर्वक प्रभु की उपासना करने लगे।
तत्पश्चात् भगवान महावीर ने मेघकुमार को तथा उस महती परिषद् को श्रुतधर्म एवं चारित्र धर्म का कथन किया। किस प्रकार से जीव कर्मों से बद्ध और किस प्रकार मुक्त होते हैं तथा किस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होते हैं, यह सब धर्मकथा सुनकर परिषद् अर्थात् जनसमूह वापिस लौट गया। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास से मेघकुमार ने धर्म श्रवण करके उसे हृदय में धारण किया और हृष्टतुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार विधिवत् वन्दना करके इस प्रकार कहा-भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, मुझमें जिनशासन के अनुसार आचरण करने की अभिलाषा है। हे भगवन् ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर आपके चरणों में मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।
तत्पश्चात् मेघकुमार भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार कर चार घंटाओं वाले अश्वरथ में बैठकर अपने राजमहल में आया। अपने माता-पिता को पैरों में प्रणाम करके उनसे इस प्रकार बोला-हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म श्रवण किया है, उस धर्म की इच्छा की है, मुझे उस पर श्रद्धा, विश्वास एवं प्रतीति है। तब माता-पिता बोले-पुत्र! तुम धन्य हो, कि तुमने श्रमण भगवान महावीर के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुम्हें इष्ट, पुनः पुनः और रुचिकर भी लगा है।