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[अंतगडदसासूत्र
उनका दीक्षा जुलूस बड़े ठाठ-बाट से नगर के मध्य से होता हुआ बगीचे में आया, कुमार पालकी से नीचे उतरे । तब उनके माता-पिता अपने पुत्र को आगे कर, भगवान को वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता, इष्ट, कान्त यावत् प्रिय पुत्र है। यह काम भोग के कीचड़ से जन्मा और भोग से वृद्धि पाया परन्तु यह काम भोगों में लिप्त नहीं हुआ है। संसार से उद्विग्न होकर आपके पास दीक्षित होना चाहता है। हम आपको इसे शिष्य रूप में भिक्षा देते हैं। आप इसको ग्रहण करावें।" ।
भगवान ने “अहासुहं देवाणुप्पिया!" कहकर स्वीकृति फरमाई। तत्पश्चात् मेघकुमार ने ईशान कोण में जाकर अपने वस्त्र अलंकार उतार कर साधु का वेश धारण किया। उसकी माता मेघकुमार के अलंकार और वस्त्रों को ग्रहण कर, विलाप करती हुई कुमार से बोली-“हे लाल! प्राप्त चारित्र योग में पूर्ण यतना रखना, अप्राप्त चारित्र योग को प्राप्त करना, संयम में कभी भी प्रमाद मत करना, तुम्हारी वैराग्य निष्ठा से प्रेरणा लेकर हम भी उसी मार्ग को ग्रहण करें।" ऐसी भावना करती हुई भगवान को वन्दना नमस्कार कर वह लौट गयी।
तत्पश्चात् कुमार ने पंचमुष्टि लोच करके भगवान के पास जाकर वन्दन नमस्कार किया और प्रभु से कहा-“भन्ते! संसार जन्म-मरण रूपी आग से जल रहा है। जैसे जलते हुए घर में से बहुमूल्य व सार वस्तुएँ निकाल ली जाती हैं, उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ आत्मा रूपी रत्न को जलते हुए संसार से निकालने के लिये मैं आपके चरणों में दीक्षित होने को उपस्थित हुआ हूँ। आप मुझे दीक्षित कीजिये।" इस पर प्रभु ने उन्हें मुनि धर्म की दीक्षा दी। साथ ही साधु-धर्म की शिक्षाएँ भी। भगवान के आदेशानुसार मेघमुनि संयम धर्म की पालना में संलग्न हो गये। (ज्ञाताधर्मकथांग-अध्ययन-1)
गौतम अणगार ने महामुनि स्कन्धक के समान भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ धारण की, जिनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
पहली प्रतिमा का धारक साधु एक महीने तक एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की (दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और पानी की अखण्ड धारा) लेता है। एक से लेकर सात प्रतिमाओं का समय प्रत्येक का एक-एक मास का है। पहली एक मासिकी, दूसरी दो मासिकी, तीसरी त्रैमासिकी, चौथी चार मासिकी, पाँचवीं पाँच मासिकी, छट्ठी छ:मासिकी और सातवीं सप्तमासिकी कहलाती है। पहली प्रतिमा में अन्न-पानी की एक-एक दत्ति, दूसरी में दो, तीसरी में तीन, यावत् क्रमश: सातवीं में सात दत्ति अन्न की और सात दत्ति ही पानी की ली जाती है। आठवीं प्रतिमा का काल सात अहोरात्रि का है और नवमी का भी सात दिन रात है। आठवीं नवमी दसवीं प्रतिमा में चौविहार उपवास किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा का समय एक दिन रात का है और चौविहार बेला करके आराधना की जाती है। बारहवीं प्रतिमा का समय एक रात का है, चौविहार तेले से इसकी आराधना की जाती है।
(प्रतिमा पालन करने की विशेष विधि प्रश्नोत्तर में देखें।) गुणरयणं वि तवो कम्म
गुणरत्न नामक तप सोलह महीनों में सपन्न होता है। इसमें तप के 407 दिन और पारणा के 73 दिन होते हैं। पहले मास में एकान्तर उपावस किया जाता है। दूसरे मास में बेले-बेले पारणा और तीसरे मास में तेले-तेले पारणा किया जाता है। इसी प्रकार बढ़ाते हुए सोलहवें महीने में सोलह-सोलह उपवास करके पारणा किया जाता है। इस तप में दिन को उत्कटुक आसन से बैठकर सूर्य की आतापना ली जाती है और रात्रि में वस्त्र रहित वीरासन से बैठकर ध्यान किया जाता है।