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अष्टम वर्ग - प्रथम अध्ययन ]
175} ___ अन्वयार्थ-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं = हे जम्बू ! उस काल, तेणं समएणं चंपा नाम = उस समय में चंपा नाम की, नयरी होत्था, पुण्णभद्दे = नगरी थी, वहाँ पूर्णभद्र नाम, चेइए = का बगीचा था। तत्थ णं चम्पाए नयरीए = वहाँ चम्पा नगरी में, सेणियस्स रण्णो भज्जा = श्रेणिक राजा की भार्या एवं, कोणियस्स रण्णो चुल्लमाउया = कूणिक राजा की छोटी माता, काली नामं देवी = काली नामक देवी थी, होत्था, वण्णओ = जो कि वर्णन करने योग्य थी। जहा नंदा = काली रानी ने नन्दा देवी के समान ही प्रभ महावीर, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जड = के पास प्रव्रज्या लेकर सामायिकादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठमेहिं जाव = बहुत से उपवास, बेले, तेले आदि तपस्या के द्वारा, अप्पाणं भावेमाणे विहरइ = आत्मा को भावित करती हुई यावत् विचरण करने लगी।
भावार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी-“हे जम्बू ! उस काल उस समय चंपा नाम की एक नगरी थी । वहाँ पूर्णभद्र नाम का एक उद्यान था । कोणिक राजा राज्य करता था। उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की रानी
और महाराज कोणिक की छोटी माता काली नाम की देवी थी, जो वर्णन करने योग्य थी। नन्दा देवी के समान काली रानी ने भी प्रभु महावीर के समीप श्रमण-दीक्षा ग्रहण करके सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया एवं वह बहुत से उपवास, बेले, तेले आदि तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी।।2।।
सूत्र 3
मूल- तए णं सा काली अज्जा अण्णया कयाइं जेणेव अज्जचंदणा अज्जा
तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं वयासी-"इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी रयणावलिं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह।" तए णं सा काली अज्जा अज्ज चंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी रयणावलिं
तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। संस्कृत छाया- ततः खलु सा काली आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैव आर्यचन्दना आर्या तत्रैव
उपागता, उपागत्य एवमवदत्-इच्छामि खलु आर्या ! युष्माभि: अभ्यनुज्ञाता सती रत्नावली तप:कर्म उपसंपद्य विहर्तुम् । यथा सुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबन्धं कुरुष्व । ततः खलु सा काली आर्या आर्यया चन्दनया अभ्यनुज्ञाता सती रत्नावली
तप:कर्म उपसंपद्य विहरति । अन्वयार्थ-तए णं सा काली अज्जा = तदनन्तर वह काली आर्या, अण्णया कयाइं जेणेव =