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[अंतगडदसासूत्र एवं खलु जंबू! समणेणं = हे जम्बू ! श्रमण भगवान, जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स = यावत् मुक्ति प्राप्त प्रभु ने आठवें अंग, अंतगडदसाणं = अन्तकृद्दशा सूत्र के, अट्ठमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता = आठवें वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं। तं जहा- = जो कि इस प्रकार हैं-, काली, सुकाली, महाकाली, = काली, सुकाली, महाकाली, कण्हा, सुकण्हा, महाकण्हा = कृष्णा, सुकृष्णा और महाकृष्णा, वीरकण्हा य बोद्धव्वा, रामकण्हा तहेव य = = वीरकृष्णा और रामकृष्णा, पिउसेणकण्हा नवमी, = नवमी पितृसेन कृष्णा और, दसमी महासेणकण्हा य = दसवीं महासेन कृष्णा जानना चाहिये। जइ णं भंते ! अट्ठमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा = यदि हे भगवन् ! आठवें वर्ग, के दस अध्ययन, पण्णत्ता, पढमस्स णं = कहे हैं तो प्रथम, भंते ! अज्झयणस्स = अध्ययन का, समणेणं जाव संपत्तेणं = श्रमण यावत् मुक्ति को प्राप्त प्रभु ने क्या, के अट्ठे पण्णत्ते ? = अर्थ फरमाया है ?
__भावार्थ-श्री जम्बू स्वामी-“हे भगवन् ! श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त प्रभु ने आठवें अंग अन्तकृद्दशा के सातवें वर्ग का यह भाव कहा है तो अब अन्तकद्दशा सूत्र के आठवें वर्गका श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त प्रभु ने क्या अर्थ कहा है ? कपा कर बताइये।"
श्री सुधर्मा स्वामी-“हे जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त प्रभु ने आठवें अंग अन्तकृद्दशा के आठवें वर्ग में दश अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-1. काली, 2. सुकाली, 3. महाकाली, 4. कृष्णा, 5. सुकृष्णा, 6. महाकृष्णा, 7. वीर कृष्णा, 8. रामकृष्णा, 9. पितृसेन कृष्णा और 10. महासेन कृष्णा।"
श्री जम्बू स्वामी-“हे भगवन् ! जब आठवें वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं, तो प्रभो! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त प्रभु ने अपने श्रीमुख से क्या अर्थ कहा है?" सूत्र 2 मूल- एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था,
पुण्णभद्दे चेइए। तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रण्णो भज्जा कोणियस्स रण्णो चुल्लमाउया, काली नामं देवी होत्था, वण्णओ। जहा नंदा सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं
चउत्थ-छट्ठट्ठमेहिं जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। संस्कृत छाया- एवं खलु जम्बू! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चंपा नाम्नी नगरी आसीत्, पूर्णभद्रं
चैत्यमासीत् । तत्र खलु चंपायां नगर्यां श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता काली नामं देवी अभवत्, वा । यथा नंदा सामायिकादीनि एकादशअंगानि अधीते, बहुभि: चतुर्थषष्ठाष्टमै: यावत् आत्मानं भावयन्ती विहरति ।