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षष्ठ वर्ग - पन्द्रहवाँ अध्ययन ]
163} करोति, कृत्वा वन्दते यावत् पर्युपासते । ततः खलु भगवान् गौतम: यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः तत्रैव उपागतः । यावत् प्रतिदर्शयति, प्रतिदी, संयमेन तपसा आत्मानं भावमान: विहरति । ततः खलु श्रमण: भगवान् महावीर: अतिमुक्ताय कुमाराय धर्मकथां (कथितवान्) । ततः खलु स: अतिमुक्तः कुमार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अंतिके धर्मं श्रुत्वा, निशम्य हृष्टः तुष्टः यो विशेषः “देवानुप्रिय! अम्बापितरौ आपृच्छामि । ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके
यावत् प्रव्रजामि।" "यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबंधं कुरु" ।।5।। अन्वयार्थ-तए णं से अइमुत्ते कुमारे = इसके बाद अतिमुक्त कुमार, गोयमेणं सद्धिं जेणेव समणे = गौतम स्वामी के साथ जहाँ श्रमण, भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ = भगवान महावीर थे वहाँ आये, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं = आकर श्रमण भगवान महावीर को, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं = तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा, करेइ, करित्ता वंदइ जाव = करते हैं, करके यावत् वन्दननमस्कार, पज्जुवासइ = करके उनकी सेवा करने लगे। तए णं भगवं गोयमे जेणेव समणे = तभी भगवान गौतम श्रमण, भगवं महावीरे तेणेव उवागए = भगवान महावीर के समीप आये यावत्, जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता, = आहार दिखाया, दिखाकर, संजमेणं तवसा अप्पाणं-भावेमाणे = संयम-तप से आत्मा को भावित विहरइ = करते हुए विचरने लगे।
तए णं समणे भगवं महावीरे = तब श्रमण भगवान महावीर ने, अइमुत्तस्स कुमारस्स = अतिमुक्त कुमार को, धम्मकहा = (उद्देश्य करके) धर्मकथा सुनाई । तए णं से अइमुत्ते कुमारे समणस्स = तब वह अतिमुक्त कुमार श्रमण, भगवओ महावीरस्स अंतिए = भगवान महावीर के पास, धम्म सोच्चा निसम्म = धर्मकथा सुनकर और उसे धारण कर, हट्टतुट्ठ = बहुत प्रसन्न हुआ। जं नवरं देवाणुप्पिया ! = यह विशेष (बोले) हे देवानुप्रिय!, अम्मापियरो आपुच्छामि = मैं माता-पिता से पूछता हूँ। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं = तब मैं देवानुप्रिय के पास यावत्, अंतिए जाव पव्वयामि = दीक्षा ग्रहण करूँगा। अहासुहं देवाणुप्पिया! = हे देवानप्रिय ! जैसे सुख हो वैसे करो, मा पडिबंधं करेह = परन्तु धर्मकार्य में प्रमाद मत करो।।5।।
भावार्थ-तब अतिमुक्त कुमार गौतम स्वामी के साथ श्रमण भगवान महावीर के पास आये और आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की और वन्दना करके पर्युपासना करने लगे। इधर भगवान गौतम भगवान महावीर के समीप आये और उन्हें लाया हुआ आहार-पानी दिखाकर संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।