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[अंतगडदसासूत्र बाहर, सिरिवणे उज्जाणे अहापडिरूवं = श्रीवन नामक उद्यान में यथाकल्प, उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा = अवग्रह लेकर संयम एवं तप से, अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, = आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे हैं, तत्थ णं अम्हे परिवसामो = हम वहाँ पर ही रहते हैं । तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं = तब अतिमुक्त कुमार भगवान, गोयम एवं वयासी- = गौतम से इस प्रकार बोले-, गच्छामि णं भंते ! अहं तुब्भेहिं सद्धिं = हे पूज्य ! मैं भी चलूँ आपके साथ, समणं भगवं महावीरं = श्रमण भगवान महावीर को, पायवंदए ? = वन्दन करने ? अहासुहं देवाणुप्पिया! = हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसे करो ।।4।।
भावार्थ-इसके बाद भगवान गौतम से अतिमुक्त-कुमार यों बोले-“हे देवानुप्रिय! आप कहाँ रहते हैं?' इस पर भगवान गौतम ने अतिमुक्तकुमार को उत्तर दिया-“हे देवानुप्रिय! मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक भगवान महावीर धर्म की आदि करने वाले यावत् मोक्ष के कामी ! इसी पोलासपुर नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में मर्यादानुसार अवग्रह लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित कर विचरते हैं, हम वहीं रहते हैं।"
अतिमुक्त कुमार-“हे पूज्य ! क्या मैं भी आपके साथ श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करने चलूँ?
श्री गौतम-“हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो।" सूत्र 5 मूल- तए णं से अइमुत्ते कुमारे गोयमेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे
तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ जाव पज्जुवासइ । तए णं भगवं गोयमे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए। जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं-भावेमाणे विहरइ। तए णं समणे भगवं महावीरे अइमुत्तस्स कुमारस्स धम्मकहा। तए णं से अइमुत्ते कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हहतुट्ठ जं नवरं "देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि।" "अहासुहं
देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह!'' ||5|| संस्कृत छाया- ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमार: गौतमेन सार्द्धं यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीर:
तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रि:कृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिणां