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षष्ठ वर्ग - तृतीय अध्ययन ]
इधर वह मुद्गरपाणि यक्ष उस हजार पल के लोहमय मुद्गर को घुमाता हुआ जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था वहाँ आया । परन्तु सुदर्शन श्रमणोपासक को अपने तेज से अभिभूत नहीं कर सका अर्थात् उसे किसी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचा सका।
मुद्गरपाणि यक्ष सुदर्शन श्रावक के चारों ओर घूमता रहा और जब उसको अपने तेज से पराजित नहीं कर सका तब सुदर्शन श्रमणोपासक के सामने आकर खड़ा हो गया और अनिमेष दृष्टि से बहुत देर तक उन्हें देखता रहा।
इसके बाद उस मुद्गरपाणि यक्ष ने अर्जुनमाली के शरीर को छोड़ दिया और उस हजार पल भार वाले लोहमय मुद्गर को लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया। सूत्र 13 मूल- तए णं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विप्पमुक्के
समाणे धसत्ति धरणितलंसि सव्वंगेहिं निवडिए । तए णं से सुदंसणे समणोवासए निरुवसग्गमि त्ति कट्ट पडिमं पारेइ । तए णं से अज्जुणए मालागारे तओ मुहत्तंतरेणं आसत्थे समाणे उट्टेइ, उठ्ठित्ता सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी-"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! के ? कहिं वा संपत्थिया ?" तए णं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणयं मालागारं एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सुदंसणे नामं समणोवासए अभिगय-जीवाजीवे गुणसिलए चेइए समणं भगवं महावीरं वंदिउं
संपत्थिए" ||13|| संस्कृत छाया- ततः खलु स: अर्जुन: मालाकार: मुद्गरपाणिना यक्षेण विप्रमुक्तः सन् ‘धस्'
इति (शब्देन सह) धरणीतले सर्वाङ्गैः निपतितः। ततः खलु सः सुदर्शन: श्रमणोपासक: ‘निरुपसर्गम्' इति कृत्वा प्रतिमां पारयति । तत: खलु स: अर्जुन: मालाकारः ततः मुहूर्तान्तरेण आश्वस्तः सन् उत्तिष्ठति, उत्थाय सुदर्शनं श्रमणोपासकम् एवमवदत्-“यूयं खलु देवानुप्रिया: ! के ? क्व वा संप्रस्थिता:?" ततः खलु सः सुदर्शनः श्रमणोपासक: अर्जुनकं मालाकारमेवमवादीत्-“एवं खलु देवानुप्रिय! अहं सुदर्शनो नाम श्रमणोपासक: अभिगतजीवाजीव: गुणशिलके चैत्ये श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दितुम् संप्रस्थितः ।।13 ।।