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[ अंतगडदसासूत्र
अर्जुन, मालागारस्स अयमज्झत्थिए = माली के मन में यह विचार, समुप्पण्णे - = उत्पन्न हुआ कि -, एवं खलु अहं बालप्पभिड़ं = मैं अपने बचपन से ही, चेव मोग्गरपाणिस्स भगवओ = मुद्गरपाणि भगवान की, कल्लाकल्लिं जाव वित्तिं = प्रतिदिन यावत् पूजा करके फिर, कप्पेमाणे विहरामि । = आजीविका पूरी करता आ रहा हूँ। तं जई णं मोग्गरपाणिजक्खे = अतः यदि मुद्गरपाणि यक्ष, इह सण्णिहिए होंते = यहाँ मौजूद होता, से णं किं ममं एयारूवं आवत्तिं = तो क्या वह मुझे इस प्रकार आपत्ति, पावेज्जमाणं पासंते = में पड़ा देखता ? तं नत्थि णं मोग्गरपाणिजक्खे = इसलिये निश्चय ही यहाँ मुद्गरपाणि, इह सण्णिहिए, सुव्वत्तं = यक्ष मौजूद नहीं है यह तो स्पष्ट ही, तं एस कट्ठे = केवल काष्ठ है।
भावार्थ-इधर अर्जुनमाली अपनी बन्धुमती भार्या के साथ यक्षायतन में प्रविष्ट हुआ और भक्तिपूर्वक प्रफुल्लित नेत्रों से मुद्गरपाणि यक्ष की ओर देखा । फिर चुने हुए उत्तमोत्तम फूल उस पर चढ़ाकर दोनों घुटने भूमि पर टेककर साष्टांग प्रणाम करने लगा। उसी समय शीघ्रता से उन छ: गौष्ठिक पुरुषों ने किवाडों के पीछे से निकल कर अर्जुनमाली को पकड़ लिया और उसकी औंधी मुश्कें बांधकर उसे एक ओर पटक दिया । फिर उसकी पत्नी बन्धुमती मालिन के साथ विविध प्रकार से काम-क्रीड़ा करने लगे ।
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यह देखकर उस समय अर्जुनमाली के मन में यह विचार आया- “देखो, मैं अपने बचपन से ही इस मुद्गरपाणि को अपना इष्टदेव मानकर इसकी प्रतिदिन भक्तिपूवर्क पूजा करता आ रहा हूँ। इसकी पूजा करने के बाद ही इन फूलों को बेचकर अपना जीवन-निर्वाह करता रहा हूँ।
तो यदि मुद्गरपाणि यक्ष देव यहाँ वास्तव में ही होता तो क्या मुझे इस प्रकार विपत्ति में पड़े हुए को देखकर चुप रहता? इसलिये यह निश्चय होता है कि वास्तव में यहाँ मुद्गरपाणि यक्ष नहीं है । यह तो मात्र काष्ठ का पुतला है । मूल
तए णं से मोग्गरपाणिजक्खे अज्जुणयस्स मालागारस्स अयमेवारूवं अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता, अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरयं अणुपविसइ, अणुप्पविसित्ता तडतडस्स बंधाई छिंदइ, तं पलसहस्स-निप्फण्णं अओमयं मोग्गरं गिण्हइ, गिण्हित्ता ते इत्थिसत्तमे छ पुरिसे घाएइ । तए णं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं अणाइट्ठे समाणे रायगिहस्स नयरस्स परिपेरंते णं कल्लाकल्लिं इत्थिसत्तमे छ पुरिसे घाएमाणे विहरइ ।