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तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ]
79 } इस पर अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार स्पष्ट किया-“हे कृष्ण ! निश्चय ही उसने सहायता की। मेरे चरण-वंदन हेतु शीघ्रतापूर्वक आते समय तुमने द्वारिका नगरी में एक वृद्ध पुरुष को देखा
और उसके घर के बाहर राजमार्ग पर पड़ी हुई ईंटों की विशाल राशि में से तुमने एक ईंट उस वृद्ध के घर में रख दी। तुम्हें एक ईंट रखते देखकर तुम्हारे साथ के सब पुरुषों ने भी उन ईंटों को उठा उठा कर उस वृद्ध के घर में पहुँचा दिया और ईंटों की वह विशाल राशि इस तरह तत्काल राजमार्ग से उठकर उस वृद्ध के घर में चली गई। इस तरह तुम्हारे इस सत्कर्म से उस वृद्ध पुरुष का उस ढेर की एक-एक ईंट करके लाने का कष्ट दूर हो
गया।"
"हे कृष्ण ! वस्तुत: जिस तरह तुमने उस पुरुष का दुःख दूर करने में उसकी सहायता की उसी तरह हे कृष्ण ! उस पुरुष ने भी अनेकानेक लाखों करोड़ों भवों के संचित कर्म की राशि की उदीरणा करने में संलग्न गजसुकुमाल मुनि को उन कर्मों की सम्पूर्ण निर्जरा करने में सहायता प्रदान की है। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने अर्हत् अरिष्टनेमि से इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! मैं उस पुरुष को किस प्रकार जान अथवा पहिचान सकूँगा?"
___ तब भगवान अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले-“हे कृष्ण ! जो पुरुष तुम्हें द्वारिका नगरी में प्रवेश करते हुए को देखकर खड़ा-खड़ा ही आयु स्थिति पूर्ण हो जाने से मृत्यु को प्राप्त हो जाय-उसी को तुम समझ लेना कि निश्चय रूपेण यही वह पुरुष है।" सूत्र 28 मूल- तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिठ्ठणेमिं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता,
नमंसित्ता, जेणेव आभिसेयं हत्थिरयणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिं दुरुहइ दुरुहित्ता जेणेव बारवई नयरी, जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स कल्लं जाव जलंते अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पण्णे। एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिडणेमिं, पायवंदए णिग्गए तं नायमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया सिट्ठमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स। तं न णज्जइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केण वि कुमारणं मारिस्सइ त्ति कट्ट भीए सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स वारवई नयरीं अणुप्पविसमाणस्स पुरओ सपक्खिं सपडिदिसं हव्वमागए।