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________________ उपोद्घात [1] सहज 'लक्ष' स्वरूप का, अक्रम द्वारा 'सहजात्म स्वरूप परम गुरु' ऐसे ज्ञानीपुरुष दादाश्री की कृपा से दो घंटे में 'यह' आत्मज्ञान मिलने के बाद 'खुद' सम्यक् दृष्टि वाला हुआ। पहले 'खद' मिथ्या दृष्टि वाला था। ज्ञानी जब इन रोंग बिलीफों (मिथ्या दृष्टि) को फ्रेक्चर कर देते हैं, तब राइट बिलीफ बैठ जाती है। राइट बिलीफ अर्थात् सम्यक् दर्शन। इसलिए फिर 'मैं चंदूभाई नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसी बिलीफ बैठ जाती है, फिर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का ध्यान अपने आप ही आता है, वह सहज कहलाता है। इसमें 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह रटन या स्मरण नहीं है। वह तो अंश अनुभव है। जो अक्रम द्वारा सहज रूप से प्राप्त होता है। जैसे-जैसे जागृति बढ़ती जाती है, उसके बाद पूरी बात समझनी पड़ती है। फिर ज्ञानी के परिचय में रहकर, ज्ञान समझ लेना है। जैसे-जैसे प्रगति करोगे वैसे-वैसे अनुभव बढ़ता जाएगा। ज्ञानी की आज्ञा में रहने का पुरुषार्थ करना है और यदि नहीं रह पाए तो भीतर खेद रखना है कि ऐसे कैसे कर्म के उदय लेकर आए हैं कि जो हमें शांति से नहीं बैठने देते। खुद का दृढ़ निश्चय और आज्ञापालन का अभ्यास, उसकी प्रगति करवाएगा। यह रिलेटिव और रियल देखने का अभ्यास, पाँच-सात दिन तक करने से वह देखना सहज हो जाएगा। अब, प्रश्न यह उठता है कि एक तरफ तो दादा कहते हैं कि आपको आपका सहज स्वरूप प्राप्त हो गया है, अब अभ्यास या रटन करने की ज़रूरत नहीं है और दूसरी तरफ ऐसा कहते हैं कि सामने वाले को शुद्धात्मा देखने का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो, फिर सहज हो जाएगा। देखने में तो ये दोनों बातें विरोधाभास लगती हैं लेकिन नहीं! दोनों बातें अपनी जगह पर योग्य ही हैं। जब स्वरूप के लक्ष के लिए ज्ञान दिया जाता है तब कृपा से ही सहज प्रतीति बैठ जाती है। जिसे यदि खुद जान-बूझकर नहीं उखाड़ेगा तो मोक्ष में जाने तक वह सहज प्रतीति नहीं 13
SR No.034326
Book TitleSahajta Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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