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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दिखाया क्योंकि बहुत केपेबल (क्षमता वाला) हो गया था, पूरा तंत्र चला दे, ऐसा।
जब भी मैं जाता था तो मालिकों ने कह रखा था कि, 'चाचा आएँ तो उनका सब इस तरह रखना'। जब मैं जाता था, तो प्रवेशद्वार में से घुसते ही पहरेदार और बाकी सब ऐसे-ऐसे करते रहते थे। यों लंबा कोट पहनकर जाता था और फिर कहलाता था उनका चाचा! 'अरे! सेठ के चाचा आए, वहाँ पर रौब पड़ता था हमारा।
एक बार हमें भरुच के बाज़ार में जाना था। उसने रास्ते में घोडा गाडी वाले से कहा कि, “एय... चल'। तो पूरे भरुच में कोई भी घोड़ा गाड़ी वाला हो या कोई भी हो लेकिन अगर वह उससे कहे कि इधर आओ, तो वह आ जाता था। और कोई चारा ही नहीं होता था उसके पास! उसने यदि अपनी बीवी को बैठाया होता तो उसे भी उतार देना पड़ता था। इतना रौबिला इंसान था! मुझे घोड़ा गाड़ी में लेकर मिठाई वाले के वहाँ ले गया। हर एक मिठाई वाला बाहर निकलकर जय-जय कर रहा था। 'अरे! सेठ जी के चाचा आए हैं, सेठ जी के चाचा आए हैं!' उसने सब जगह बता दिया था। अब मिठाई वाले को क्या लाभ मिल रहा होगा? जब-जब भी मिल में ज़रूरत पड़ती थी, तब ऑर्डर देते थे तो मिठाई वाले खुश हो जाते थे कि 'मेरा काम हो गया'। कमिशन-वमिशन नहीं खाता था। वे अगर सिर्फ 'बाप जी-बाप जी' करें तो भी बहुत था। मेरे चाचा को 'बाप जी' कहा न! और उसे भी आदर से बुलाते थे। बस यही, ‘मान खाऊँ, मान खाऊँ'।
उसके बाद रावजी भाई सेठ ने मुझसे कहा, "इसे कैसा तैयार किया है आपने! आपने कहा था न, कि 'आप मतभेद नहीं डाल सकोगे!' तो मैंने मतभेद डालने के प्रयत्न किए। मैं मिल मालिक होकर इसके साथ मतभेद डालने के प्रयत्न करता हूँ। मैं इधर से मतभेद डालूँ तो वह उस ओर घूम जाता है और इधर से डालूँ तो उस ओर घूम जाता है। मतभेद नहीं होने देता।" मैंने कहा, "नहीं होने देगा'। अब वह मतभेद