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क्रिया मात्र पुद्गल की व्यवस्थित शक्ति से होती है, विशेष भाव में क्या होता है? आठ प्रकार के द्रव्यकर्म बनते हैं जो कि भावकर्म करवाते हैं।
__द्रव्यकर्म के पट्टे की शुरुआत कहाँ से हुई? विशेष भाव से ही पट्टे बंधे हैं, जिससे उल्टा दिखाई दिया और उल्टे भाव हुए। इसमें आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। आत्मा की उपस्थिति के कारण इन आठ प्रकार के कर्मों में पावर भरा गया है। इसमें आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। पुद्गल में पावर चेतन भर गया है। 'मैं' जैसा आरोपण करता है, उसी अनुसार पुद्गल में पावर चेतन भर जाता है और पुद्गल वैसा ही क्रियाकारी बन जाता है।
रागादि भाव आत्मा के नहीं हैं, वे विभाविक भाव हैं। आत्मा ज्ञान दशा में स्वभाव का ही कर्ता है और अज्ञान दशा में विभाव का कर्ता है, भोक्ता है। क्रमिक मार्ग में इस बात को एकांतिक रूप से ले लिया गया
और बहुत बड़ा घोटाला हो गया। वहाँ पर आत्मा को कर्ता-भोक्ता मान लिया गया।
आत्मा कभी भी विकारी नहीं हुआ। पुद्गल, वह स्वभाव से सक्रिय होने के कारण विकारी बन सकता है। इसमें आत्मा की उपस्थिति कारणभूत है।
आत्मा यह सब केवलज्ञान से जान सकता है और दूसरा विशेष भाव से भी जान सकता है।
__ दो प्रकार के आत्मा हैं। एक, निश्चय आत्मा और दूसरा, व्यवहार आत्मा। निश्चय आत्मा की वजह से व्यवहार आत्मा उत्पन्न हो गया है। जैसे दर्पण के सामने हम दो दिखाई देते हैं न? व्यवहार आत्मा को प्रतिष्ठित आत्मा कहा गया है। खुद ने अपनी प्रतिष्ठा की है। वापस फिर से यदि 'मैं चंदू हूँ' की प्रतिष्ठा हो जाए तो उससे अगले जन्म का नया प्रतिष्ठित आत्मा सर्जित होता है। ज्ञान मिलने के बाद 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा हो जाता है, इसलिए उल्टी प्रतिष्ठा होनी बंद हो जाती है। नया
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