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अज्ञानी रोंग बिलीफ से क्रोध-मान-माया-लोभ को 'मेरे गुण' मानता है जबकि ज्ञानी राइट बिलीफ से उन्हें पुद्गल के (गुण) मानते हैं। वे कहते हैं कि 'ये गुण मेरे नहीं हैं'।
पूरा जगत् निर्दोष ही है, ज्ञानियों की दृष्टि में! कौन दोषित दिखाता है? ये व्यतिरेक गुण ही।
'मैं' रोंग बिलीफ से ऐसा मानता है कि 'मैं चंदू हूँ'। ज्ञानी उसे राइट बिलीफ देकर यह मान्यता दृढ़ करवा देते हैं कि, 'मैं शुद्धात्मा हूँ। उसके बाद 'मैं' को खुद का विशेष भाव और स्वभाव, दोनों ही पता चल जाते हैं और निज स्वरूप का अनुभव हो जाता है। यह है अतिअति गुह्य विज्ञान, जगत् के मूल कारण का।।
(३) व्यवहार अर्थात् विरुद्ध भाव? मूल आत्मा ने कभी भी किसी कार्य के होने में प्रेरणा नहीं दी है। प्रेरणा देने वाला गुनहगार माना जाएगा।
वास्तव में इसमें प्रेरक कौन है ? खुद के ही कर्मों का फल प्रेरक है और वह व्यवस्थित शक्ति से है। पिछले जन्म में भाव हए हों, बीज पड़े हों, डॉक्टर बनने के तो इस जन्म में संयोग मिलने से वह उगता है। इन संयोगों का मिलना, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स अर्थात् व्यवस्थित शक्ति के अधीन है और बीज का उगना, वह पूर्व कर्म का उदय हुआ, फल अर्थात् वह अंदर से जो प्रेरणा स्फुरित होती है, वह। विचार आता है कि डॉक्टर बनना है, वह पूर्व कर्म का फल माना जाता है। इसमें आत्मा का कर्तापन नहीं है।
आत्मा संकल्प-विकल्प नहीं करता है और वह भावकर्म भी नहीं करता और न ही कर्म ग्रहण करता है। वर्ना वह उसका शाश्वत स्वभाव बन जाएगा। अत: 'मैं' जो कि विशेष भाव है, वही कर्म ग्रहण करता है और भावकर्म भी 'मैं' ही करता है। क्योंकि भावकर्म तो, 'मैं' को जो द्रव्यकर्म के चश्मे मिलते हैं, उसके आधार पर भावकर्म हो जाते हैं। अभी तो मानो कि सभी भाव अहंकार के ही हैं। लेकिन शुरुआत में तो विशेष गुण उत्पन्न होते हैं और उससे भावकर्म शुरू हो जाते हैं।
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