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साध्वीयोंके पास ही आलोचना करना कल्पै. अगर अपनी अपनी समाजमें आलोचना सुननेवाला हो, तो उन्होंके पास ही आलोचना करना, प्रायश्चित्त लेना. अगर दश बोलोंका जानकार साध्वीयों में उस समय हाजर न हो, तो साध्वीयों साधुवोंके पास भी आलोचना कर सके, और साधु साध्वीयों के पास आलोचना कर सके.
भावार्थ-जहांतक आलोचना सुन प्रायश्चित्त देनेवाला हो, वहांतक तो साध्वोयोको साध्वीयोंके पास और साधुवोंको साधुवोंके पास ही आलोचना करना चाहिये कि जिससे आपसमें परिचय न बढे.अगर ऐसा न हो,तो आलोचना क्षणमात्र भी रखना नहीं चाहिये. साध्वीयों साधुओंके पास भी आलोचना ले सके.
(२०) साधु साध्वीयोंके आपसमें संभोग है, तथापि आपसमें वैयावश्च करना नहीं कल्पै, जहांतक अन्य वैयावच्च करने वाला हो वहांतक. परन्तु दुसरा कोइ वैयावच्च करनेवाला न हो, उस आफत में साधु, साध्वीयोंकी वैयावञ्च तथा साध्वीयों, साधुवोंकी वैयावच्च कर सके. भावना पुर्ववत्.
(२१) साधुको रात्रि तथा वैकालमें अगर सर्प काट खाया हो, तो उसका औषधोपचार पुरुष करता हो, वहांतक पुरुषके पास ही कराना. अगर उसका उपचार करनेवाली कोइ स्त्री हो, तो मरणान्त कष्टमें साधु स्त्रीके पास भी औषधोपचार करा सकते है. इसी माफिक साध्वीको सर्प काट खाया हो, तो जहांतक स्त्री उपचार करनेवाली हो, वहांतक स्त्रीसे उपचार कराना, अगर स्त्री न हो, किन्तु पुरुष उपचार करता हो, तो मरणान्त कष्टमें पुरुषसे भी उपचार कराना कल्पै. यहांपर लाभालाभका कारण देखना. यह कल्प स्थविरकल्पी मुनियोंका है. जिनकल्पी मुनिको