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तो किसी प्रकारका वैयावश्च कराना कल्पै ही नहीं. अगर जिनकल्पी मुनिको सर्प काट खानेपर उपचार करावे तो प्रायश्चित्तका भागी होता है. परन्तु स्थविरकल्पी पुर्वोक्त उपचार कराने से प्रायश्चित्तका भागी नहीं है. कारण उन्होंका ऐसा कल्प है. इति.
श्री व्यवहारसूत्र - पांचवा उद्देशाका संक्षिप्त सार.
( ६ ) छट्टा उद्देशा.
( १ ) साधु इच्छा करे कि मैं मेरे संसारी संबंधी लोगोंके घरपर गौरी आदिके लीये गमन करूं, तो उस मुनिको चाहिये कि पेस्तर स्थविर (आचार्य) को पुछे कि - हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो में अमुक कार्यके लीये मेरे संसारी संबन्धीयोंके वहां जाउं ? इसपर आचार्यमहाराज योग्य जान आज्ञा दे, तो गमन करे, अगर आज्ञा न दे तो उस मुनिको जाना नहीं कल्पै. कारण- संसारी लोगोंका दीर्घकाल से परिचय था, वह मोहकी वृद्धि करनेवाला होता है. अगर आचार्यकी आज्ञाका उल्लंघन कर स्वच्छन्दाचारी साधु अपने संबन्धीयोंके वहां चला भी जावे, तो जितने दिन आचार्यकी आज्ञा बहार रहै, उतने दिनोंका तप तथा छेद प्रायश्चित्तका भागी होता है.
(२) साधु अल्पश्रुत, अल्प आगमविद्याका जानकार अकेलेको अपने संसारी संबंधीयोंके वहां जाना नहीं कल्पै.
( ३ ) अगर बहुश्रुत गीतार्थी के साथमें जाता हो, तो उसे अपने संसारी संबंधीयोंके वहां जाना कल्पै.
( ४ ) साधु गीतार्थ के साथ में अपने संसारी संबंधीयोंके वहां भिक्षाके लीये जाते है. वहां पहले चावल चूला से उतरा हो तो चावल लेना कल्पै, शेष नहीं.