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(४२) (४) विषम स्थिति और विषय कर्मवाले । ऐसा होनेका क्या कारण है सो पतलाते है। (१) म आयुष्य और साथमें उत्पन्न हुवा । (२) सम आयुष्ग और विषम उत्पन्न हुवे । (३) विषम आयुष्य और साथमें उत्पन्न हुवा । (४) विषम आयुष्य और विषम उत्पन्न हुवा । इति चोवीसवा शतकका प्रथम उद्देशा समाप्त ।
(२) अनन्तर उत्पन्न हुवा एकेन्द्रिश्के दश भेद है। पृथ् यादि पांच सूक्ष्मस्थावर पांच बादरस्थावर इन्ही दोंके अपर्याप्ता है कारण प्रथम समयके उत्पन्न हुवेमे पर्याप्ता नही होते है। प्रथम समयके उत्पन्न हुवा मरके अन्य गतिमें भी नही जाते है।
'समृदयात उत्पात और स्थानको दाखे स्थानपद ।
दश मेदोंमे आटों कर्मकि सत्ता है। बन्ध युष्याके मात कहे।। है चौदा :कृति वेदते है। उत्पात ७१ स्थानसे + मुद्यात दोय वदनि वषाय । अनान्तर समर के उत्पन्न हुवा एकेन्द्रि। दोय प्रकार के होते है (१) मति समकर्मवाला (१) सम'स्थति विषम वर्मवाला । इति ३४-२
एवं मनान्तर अवग ह्या अनन्तर आहारिक और मानर पता, यह च्यार उद्देशा सादृश है।
१४३०४ पाम्पर उत्पन्न होने का उद्देशो सन्चात १४३०४ परम्पर अवगाहा १४३०४ परम्पर आहारिक ९४३०४ परम्पर पर्याप्ता