________________
२९७
".
भावार्थ-साधुको कपडे निमित्त पृथ्व्यादि किसी जीवोंको तकलीफ होती हो, ऐसा वस्त्र लेना साधुवोंको नहीं कल्पै. ( ९० ) साधुवों के पूर्व गृहस्थावास संबंधी न्यातीले हो, अन्यन्यातीले हो, श्रावक हो, अश्रावक हो, वह लोग ग्राममें तथा ग्रामान्तर में साधुके नामसे याचना- - जैसे महाराजको वस्त्र चाहिये, महाराजको वस्त्र चाहिये, आपके वहां हो तो दीजीयेइत्यादि याचना कर देवे, वैसा वस्त्र साधु लेवे. ३
भावार्थ-साधुको वस्त्रकी जरुरत हो तो आप स्वयं याचना करे, परन्तु गृहस्थोंका याचा हुवा नहीं लेवे.
"
( ९१ ) न्यातीलादि परिषदकी अन्दरसे उठके साधुके निमित्त वस्त्रकी याचना करे, वह वस्त्र साधु ग्रहन करे. ३
भावार्थ - किसी कपडेवालोंका देनेका भाव नहीं हो, परन्तु एक अच्छा आदमीकी याचनासे उसे शरमींदा होके भी देना पडता है. वास्ते साधुको स्वयंही याचना करनी चाहिये.
(९२), साधु वत्रकी निश्राय ऋतुबद्ध ( मासकल्प ) ठेरे. ३
( ९३ ) एवं वस्त्र के लीये चातुर्मास करे. ३
भावार्थ - मुनि, वस्त्रकी याचना करनेपर गृहस्थ कहे कि - हे मुनि ! तुम अबी यहांपर मासकल्प ठेरें, तथा चातुर्मास करें, हम आपको वस्त्र देंगे, और वस्त्र देशान्तर से मंगवा देंगे, ऐसा वचन सुन, मुनि मासकल्प तथा चातुर्मास ठेरे. अगर ठेरना होतो अपने कल्प तथा परउपकारके लीये ठेरना चाहिये. परन्तु कपडेंकी खुशमंदी मातेत होके नहीं ठेरे, ऐसा निःस्पृही वीतरागका धर्म है.