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दकी प्रबलता, विषयविकारको उत्तेजन, स्वाध्याय-ध्यानकी व्याघात, इत्यादि अनेक दोषों उत्पन्न होते है ।
( २६८ ) जो कोइ साधु साध्वी, अनेक प्रकारके इस लोक संबंधी मनुष्य-मनुष्यणीका शब्द, परलोक संबंधी देवी, देवता, तिर्यच, तिर्यंचणीके शब्द, देखे हुवे शब्द, विगर देखे हुवे शब्द, सुने हुवे शब्द, न सुने हुवे शब्द, यावत् ऐसे शब्द सुन उसके उपर राग, द्वेष, मूच्छित, गृद्ध, आसक्त हो, श्रोत्रंद्रियका पोषण करे, करावे, करतेको अच्छा समझे.
उपर लिखे २६८ बोलोंसे एक भी बोल कोइ साधु साध्वी सेवन करेंगा, उसे लधु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होगा. प्रायश्चित्त विधि देखो वीसवा उद्देशामें.
इति श्री निशिथसूत्र-सत्तरवा उद्देशाका संक्षिप्त सार.
(१८) श्री निशिथसूत्र-अठारवा उद्देशा. - (१) 'जो कोइ साधु साध्वी' विगर कारण नौका (नावा) में बैठे, बैठावे, बैठतेको अच्छा समझे.
भावार्थ-समुद्रकी स्हेल करनेको तथा कुतुहलके लीये नौकामें बैठे, उसे प्रायश्चित्त होता है.
(२),, साधु साध्वीयोंके निमित्त नौका मूल्य खरीद कर रखे, उस नौकापर चढे. ३
(३) एवं नौका उधारी लेवे, उसपर बैठे. ३ . (४) सलटो पलटो करी हुइ नौकापर बैठे. ३
(५) निर्बलसे कोई सवल जबरदस्तीसे ले, उस नौकापर