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________________ न्यायविन्दु अनयोः सपक्षेऽसवमसपक्षे च सत्वमिति विपर्यसिद्धिः। इन दोनोंके सपक्षमें न रहने और असपक्षमें रहनेसे विपर्ययकी सिद्धि होती है। एतौ च साध्यविपर्ययसाधनाविरुदौ । यह दोनों साध्य ( नित्यत्व ) के विपरीत ( अनित्यत्व ) का साधन करनेसे विरुद्ध हैं। तत्र च तृतीयोऽवीष्टविघातकद्विरुद्धः । एक तीसरा इष्टविघातकृत् विरुद्ध भी है। . यथा परार्थोश्चक्षुरादयः संघातवाच्छयना. शनाद्यङ्गवदिति । जैसे-चक्षु आदि परार्थ हैं। क्योंकि वह शयन, आसन आदि पुरुषके उपभोगके अंगोंके समान संघात ( परमाणुसंचितिरूप ) हैं। तदिष्टासंहतपारायविपर्ययसाधनाविरुद्धः । वह [वादी सांख्यके ] इष्ट असंहत (विषय ) की परार्थताके विपरीत को साधन करनेसे विरुद्ध है। स इह कस्मान्नोक्तः ? वह यहां क्यों नहीं कहा गया ? ___ अनयोरेवान्तर्भावात् । क्योंकि उसका इन दोनों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। न ह्ययमाभ्यां साध्यविपर्ययसाधनलेन भिद्यते । क्योंकि यह इष्टविघातकृत् इन दोनों हेतुओंसे साध्यविपर्ययसाधनताकी अपेक्षा भिन्न नहीं है। न हीष्टोक्तयोः साध्यत्वेन कश्चिद्विशेषः इति द्वयो रूपयोरेकस्यासिद्धावपरस्य च संदेहेऽनै कान्तिकः । क्योंकि इष्ट और उक्तमें [एक दूसरेका साध्य होनेसे ] कोई विशेष नहीं है । अतएव दो रूपोंमेसे एकके असिद्ध होने तथा दूसरेके संदिग्ध होनेसे अनैकान्तिकर्ता आती है। यथा वीतरागः कश्चित्सर्वो वा रक्तृत्वादिति ।. ... .. - व्यतिरेकोऽत्रासिद्धः । संदिग्धोऽदया। ... ..
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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