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________________ भाषाटीका सहित अभाव से ही विरोध चल सकता है । शीतोष्णस्पर्शवत् । जैसे -- शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श का विरोध है । अब दूसरे विराधको दिखलाते हैं २४ परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया वा भाववत् । परस्परपरिहारस्थितलक्षणतासे भावके समान विरोध है । ( जो एक दूसरेका परिहार करके अथवा उसका अभाव करके स्थित हो वह वस्तुएं परस्परपरिहारस्थितलक्षण घाली हैं । जैसे-2 और अभाव । ) -भाव स च द्विविधोऽपि विरोघ वक्तृत्व सर्वज्ञत्वयोर्न सम्भवति । वह दोनो ही प्रकारका विरोध वक्तत्व और सर्वज्ञत्वमें संभव नहीं है । न चाविरुद्ध विधेरनुपलब्धावप्यभावगतिः । रागादीनां वचनादेश्व कार्यकारणभावासिद्धेः । अविरुद्धविधिकी अनुपलब्धिर्मे भी अभाव नहीं हो सकता । क्योंकि राग आदिकों और वचन आदिका कार्यकारणभाव असिद्ध है । अर्थान्तरस्य वा कारणस्य निवृत्तौ न वचनादेर्निवृत्तिरिति संदिग्धव्यतिरेकोऽनैकान्तिको वचनादिः । अथवा अर्थान्तरकारणकी निवृत्ति में ( सहचारिके दर्शनमात्र से ) वचन आदि की निवृत्ति नहीं होती । अतएव सर्वज्ञमें वचन आदि संदिग्धव्यतिरेक अनैकान्तिक हैं । द्वयोरूपयोर्विपययसिद्धौ विरुद्धः । दो रूपोंके विरुद्ध सिद्ध हो जानेपर विरुद्ध हेत्वाभास होता है । कयोर्द्वयोः ? सपक्षे सत्वस्यासंपक्षे चासत्त्वस्य । यथाकृतकत्वं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं च निसत्वे साध्ये विरुद्ध हेत्वाभासः । किन दो के ? सपक्षमें सत्त्व और असपक्षमें असत्त्व के । जैसे - नित्यत्वके सिद्ध करनेमें कृतकत्व और प्रयत्नानान्तरीयकत्व विरुद्ध हेत्वाभास हैं । १. पी० [सं० का 'सपक्षे' पाठ ठीक नहीं है।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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