SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषाटीका सहित बाह्य और आन्तर । बाह्य के फिर दो भेद हैं-भूत और भौतिक । आन्तरके भी दो भेद हैं-चित्त और चैत्त । चैत्तको चैत्तिक भी कहते हैं । भूत पृथ्वी आदि चार परमाणु हैं । भौतिक रूप आदि और चक्षु आदि हैं । चित्त विज्ञान है। चैत्तिक रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा, और संस्कार संज्ञा वाले पाँच स्कन्ध हैं। विज्ञानके फिर दो भेद हैं-आ लयविज्ञान जो 'अहं' या 'मैं' इस आकारका है । प्रवृत्तिविज्ञान इन्द्रिय आदि से उत्पन्न होता है और रूप आदि को विषय करता है । ) M भूतार्थभावनाकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति । सभूत अर्थ के प्रकर्ष तक होने वाले ज्ञानको योगिज्ञान कहते हैं । ( योगिप्रत्यक्ष सद्भूत अर्थका ही हो सकता है। असभूतका नहीं हो सकता, और वह भी थोडा बहुत नहीं होता किन्तु प्रकर्ष अर्थात् चरम सीमा तक होता है । ) A तस्य विषयः स्वलक्षणम् । प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है । [ जो कि क्षण है । ] यस्यार्थस्य संनिधानासंनिधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत्खलक्षणम्, तदेत्र परमार्थसत्, अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुनः । जिस विषयकी समीपता और असमीपतासे ज्ञानके प्रतिभासमें भेद हो वह स्वलक्षण है। और वही परमार्थ सत् है । क्योंकि बड़ी वस्तु अर्थक्रिया कराता है । अन्यत्सामान्यलक्षणम्, सोऽनुमानस्य विषयः । स्वलक्षणसे भिन्न सामान्यलक्षण होता है । वह अनुमानका विषय होता है । तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् । वह प्रत्यक्ष ज्ञान ही अर्थ प्रतीतिरूप होनेसे प्रमाणका फल है । अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं, तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेरिति । इस ज्ञानका अर्थके समान बन जाना प्रमाण है। क्योंकि उसीसे अर्थकी प्रतीतिकी सिद्धि होती हैं ।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy