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न्यायधिन्दु द्वितीय परिच्छेद ।
अनुमानं द्विधाअनुमान दो प्रकारका होता है
स्वार्थ परार्थ च । स्वार्थ और परार्थ।
तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाघदनुमे ये ज्ञानं तदनुमानम् । त्रिरूपलिंग से होने वाले अनुमेयके शानको स्वार्थानुमान क.
प्रमाणफलव्यवस्थात्रापि प्रत्यक्षवत् । प्रमाणके फलकी व्यवस्था यहां भी प्रत्यक्षके ही समान है।
त्रैरूप्यम् पुन:लिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव,
सपक्ष एवं सत्वम्,
असपक्षे चासत्वमेव निश्चितम् । भैरूप्य (त्रिरूपलिंग ) यह है(१) अनुमेयमें लिङ्गकी विद्यमानता
(लिङ्ग शब्दका अर्थ चिन्ह है । जैसे-दूरसे देखनेवाले के लि. ये अग्निका चिन्ह या लिङ्ग धूम है । धूम ही हेतु है । इस को धर्म भी कहते हैं । ) (२) लिङ्गका सपक्षमें अवश्य रहना । और (३) लिङ्गका विपक्षमें किसी अवस्थामें भी न रहना।
अनुपेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी । जिस धर्मीको अनुमानके द्वारा जाननेकी इच्छा की जाती है उसे अनुमेय कहते है।
(जिस गुण या लक्षणको दिखला कर वस्तु ( अनुमेय ) सिद्ध की जाती है उसे धर्म कहते हैं। जिस वस्तु ( अनुमेय ) में वह धर्म रहे उसे धी कहते हैं। जिसे सिद्ध किया जावे उसे साध्य कहते हैं।)