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________________ न्यायविन्दु भ्रम नहीं हुआ है ऐसा [कल्पना रहित और निभ्रान्त ] ज्ञान ही प्रत्यक्ष होता है। तच्चतुर्विधम् । प्रत्यक्षमान चार प्रकारका होता है १ इन्द्रियज्ञान, २ मनोविज्ञान, ३ आत्मसंवेदन ( स्वसंवेदन ) और ४ योगिप्रत्यक्ष ( योगिज्ञान)। इन्द्रियज्ञानम् । इन्द्रियोंके ज्ञानको इन्द्रियज्ञान कहते हैं। स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तर. प्रत्ययेन जनितं तत् मनोविज्ञानम् । अपने विषयके पश्चात् , विषयके सहकारी, समनन्तरप्रत्ययरूप इन्द्रियज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको मनोविज्ञान कहते हैं। ___ (बौद्ध दर्शनमें ज्ञानके ४ प्रत्यय (कारण) माने हैं। नेत्रसे घटको देख. नेमें पहला कारण स्वयं घट है। अतएव विषय होनेसे इसको आलम्बन प्रत्यय कहते हैं। दूसरा कारण आलोक है । क्योंकि उसकी सहायताके बिना इन्द्रियाँ किसी विषयको ग्रहण नहीं कर सकतीं। अतएव उसको सहकारीप्रत्यय कहते हैं। तीसरा कारण इन्द्रिये हैं उनको अधिपतिप्रत्यय कहते हैं । और चौथा कारण ग्रहण करने अथवा वि. चार करनेकी वह शक्ति है जिसका उपयोग न होन से हम प्रायः दे. खते हुए भी नहीं देख सकते, शब्द होते हुए भी नहीं सुन सकते । बौद्धतर दर्शनोंकी अपेक्षा इसको मन कहना उपयुक्त होगा । इसको समनन्तरप्रत्यय कहते हैं।) सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनम् । सभी चित्त ( अर्थमात्रको ग्रहण करने वाले ) और चैत्तों ( वि. शेष अवस्थाको ग्रहण करने वाले सुख आदि ] का आत्माको प्रकट करना आत्मसंवेदन है। ( वाद्यार्थास्तित्ववादी वौद्धोंके मनमें प्रत्येक वस्तुके दो भेद हैं १. पीटर्सन साहब की पुस्तक में विरामाचन्ह 'इन्द्रियज्ञानम्' के पश्चत् न देकर अगल वाक्य में 'तत्' के पश्चात् दिया गया है । जिससे 'स्वविषय .' आदिके इन्द्रियज्ञान का लक्षण होने का भ्रम होता है । संस्कृतटीका के सम्पादन में हम इस भ्रम से नहीं बच सके । २. पहिली पुस्तक का 413 'सर्व चित्त-' आदि है । किन्तु वह अशुद्ध है ।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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