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________________ बौद्ध न्यायबिन्दु 4. हिन्दी अनुवादकाव्यसाहित्यतीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शास्त्री कृत । प्रथम परिच्छेद । सम्यग्ज्ञानपूर्षिका सर्वपुरुषार्थसिद्धिरिति तयुस्पायते । सभी पुरुषार्थोकी सिद्धि सम्यग्ज्ञान पूर्वक होती है, अतएव [इस प्रन्थमें ] उसीका वर्णन किया जाता है । द्विविधं सम्यम्झानम्सम्यग्ज्ञान दो प्रकारका होता है . प्रत्यक्षमनुमानश। प्रत्यक्ष और अनुमान । तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । उनमेंसे कल्पनारहित निर्धान्त नानको प्रत्यक्ष कहते हैं। . अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना तया रहितम् । अभिलाप (वाचकशब्द) से संसर्ग ( एक शानमें अभिधेयाकारका अभिधानाकारके साथ ग्रहण करने योग्य हो जाना। जो कहा जावे उस अभिधेय तथा कहने या नाम को अभिधान कहते हैं ) के योग्य प्रति. भासकी प्रतीतिको कल्पना कहते हैं। ('वृक्ष' इस शब्दके कहते ही हृदयमें इस शब्दके संसर्ग से इस शब्दके योग्य स्कन्ध और शाखादिमान् पदार्थका प्रतिभास होने लगता है। उस पदार्थकी प्रतीतिको कल्पना कहते हैं। ) प्रत्यक्षबान उस कल्पनासे रहित होना चाहिये। तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभाधनाहितविभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् । जिस ज्ञानमें अन्धकार, [ अलात आदिका ] शीघ्र २ घूमना, नौ. कापर जाना और [घात पित्त भौर श्लेष्मके] संक्षोभ आदिसे वि.
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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