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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३५१) रोचन, पाचन, पस्तिशोधक तथा शूल, अजीर्ण, विबंध और आमको नष्ट करनेवाली रोती है ॥ १-३॥
शोषमूभ्रिमातानां महकण्डुविशोषिणाम् । कुष्ठिनां रक्तपित्तानां कांजिकं न प्रशस्यते ॥४॥ पांडुरोगे यक्ष्मरोगे तथा शोषातुरेषु च । क्षतक्षीणे तथा श्रोते मदज्वरनिपीडिते ॥५॥ शोष, मूळ और भ्रमसे पीड़ितोंको, अदनालों को, खुनजीगलों को, जिनका शरीर सूख गया हो उनको, कुष्ठियों को पोर रक पित्तवालोंको कांजी देनी उचित नहीं । पाण्डुरोग, शोष, क्षतसे हुई टुर्व नता, थकावट पौर मंदम्परकी पिडा कांजी देनी अहितकर और दोषोंको कुपित करने वाली है ॥ ४॥ ५॥
एतेषां त्वहितं प्रोक्तं कांजिकं दोपकारकम् । तुषोदकं यरामैः सतुषैः शकलीकृतैः ॥ ६॥ तुषांवु दीपनं हृद्यं पांडुक्रिमिगदापहम् । तीक्ष्गोष्णं पाचनं पित्तरक्तकृद्रस्तिशुलनुत् ॥ ७॥ यदि कच्च योंको तुषों सहित टुकडे करके जल में डालकर संधान करे तो वह तुषोदक बन जाता है। तुषोदक-दीपन, हद्य, तीक्ष्ण, उष्ण, पाचन, पित्ताकारक, पस्तिशूननाशक तया पाण्डु और कृमियोंको मष्ट करनेवाला है ॥ ६ ॥७॥
सौवीरं तु यवैरामैः पौर्वा निस्तुपैः कृतम् । गोधूमैरपि सौवीरमाचार्याः केचिदूचिरे ॥ ८ ॥ सौवीरं तु ग्रहण्यकिफघ्नं भेदि दीपनम् । उदावतीगमर्दास्थिशूलानाहेषु शस्यते ॥ ९ ॥ यदि कच्चे अथवा परके यवोका छिलका उतार कर दुको २ करके