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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३३५) छिन्नभिन्नच्युतोपिष्टमथितक्षतपिच्चिते । भग्नस्फुटितविद्धानिदग्धविश्लिष्टदारिते ॥ ६॥ तथाभिहतनि नमृगव्याघ्रादिविक्षते । वस्तौ पानेऽत्रसंस्कारे नस्ये कर्णाक्षिपूरणे ॥ ७ ॥ सेकाभ्यंगावगाहेषु तिलतैलं प्रशस्यते । घृतमब्दात्परं पक्वं हीनवीर्य प्रजायते ।
तैंले पक्वमपक्वं वा चिरस्थायि गुणाधिकम् । तिलतैल-छिन्न, भिन्न, च्युत, पिष्ट, मथित,क्षत,पिच्चित,भग्न, स्फुटित, विद्ध, अग्निदग्ध,विश्लिष्ट आदि अभिहत स्थानोपर, निर्भुग्न स्थानमें, मृग
और व्याघ्र प्रादिके किये हुर ततपर,वस्तिकर्ममें,पीने में, अबके संस्कारमें नस्य कर्ममें,कान और नेत्र में भरने के लिये,सेकमें,मालिशमें और अवगाइनमें तिलतैल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
पकाया हुआ घी एक वर्ष के बाद ही नवीर्य हो जाता है। तैल पक्व हो अथवा अपक हो,चिरस्थायी होता है और गुणोंमें अधिक होता है॥६-८॥
__ सर्षपतैलगुणाः । दीपनं सार्षपं तैलं कटुपाकरसं लघु ॥९॥ लेखनं स्पशवीर्योष्णं तीक्ष्ग पित्तास्रदूषकम् । कफमेदोनिलार्शोघ्नं शिरःकर्णामयापहम् ।। १० ॥
कण्डुकुष्ठकृमिश्वित्रकोठदुष्टक्रिमिप्रणुत् । . तद्वद्राजिकयोस्तैलं विशेषान्मृत्रकृच्छकृत् ॥ ११ ॥
सरसों का तेल-रस और पाकमें कटु,हलका, स्पर्श तथा वीर्यमें उष्ण, तीक्षण, रक और पितको दृषित करनेवाला, कफनाशक,मेदनाशक, वायु और अर्थ के हरनेवाला,कानके और शिरोंके रोगों को दूर करने वाला,तथा कण्डू, कुष्ठ, कृमि श्वित्र,कोठ और दुष्ट कृमियों को दूर करता है।