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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। तैलवर्गः १७.
तिलादिस्निग्धवस्तूनां स्नेहस्तैलमुदाहृतम् । तत्तु वातहरं सर्व विशेषात्तिलसंभवम् ॥ १॥ तिलतैलं गुरु स्थैर्यबलवर्णकरं सरम् । वृष्यं विकाशि विशदं मधुरं रसपाक्योः ॥२॥ सूक्ष्मं कषायानुरसं तिक्तं वातकफापहम् । वीय्यणोष्णं हिमं स्पशैं बृहण रक्तपित्तकृत् ॥३॥ लेखनं बद्धविण्मूत्रं गर्भाशय विशोधनम् । दीपनं बुद्धिदं मेध्यं व्यवायित्रणमेहनुत् ॥४॥ श्रोत्रयोनिशिरःशूलनाशनं लघुतारकम् । त्वच्य केश्यं च चक्षुष्यमभ्यंगे भोजनेऽन्यथा ॥२॥
तिल अादि स्निग्ध वस्तुका पीडन करनेसे निकाला दुपा स्नेह तैल कहा जाता है। सब प्रकारके तैल प्रायः वातनाशक होते है। और तिलों. कातेल विशेष रूपसे वातनाशक है। तिल का तैल-भारी, थरीरको दृढ बनानेवाला, बल, वर्ण कारक, सारक, वृष्य, विलासी, विराद, रस पाकमें मधुर, सूक्ष्म, काषायानुएस, तिक्त, वातकफनाशक, वीर्यमें उप, स्पर्शमें शीतल, बृहण, रक्तपित्तकारक, लेखन, मळम्बको बांधनेवाला, गर्भाशयको शुद्ध करनेवाला, दीपन, बुद्धिबईक, मेधाजनक, व्यथायो, व्रण पौर प्रमेहको दूर करने वाला, कान,योनि और शिरके शूनको नाश करनेवाला, शरीरको हलका बनानेवाला, स्वचा और केशोको सुन्दर बनानेवाला, नेत्रोंको हितकारी, मालिश और भोजनमें हिसकारी होता है ॥१-५॥