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इतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
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वातरोग, मूत्रावरोध, काल, कुष्ट, जठररोग, कृमि और पाण्डुको केवल एक गोमूत्र ही पीने से दूर कर देता है ।। १-४.
सर्वेष्वपि च मूत्रेषु गोमूत्रं गुणतोऽधिकम् । अतो विशेषात्कथितं मूत्रं गोमूत्रमुच्यते ॥ ५ ॥ प्लीहोदरश्वासकासशोथवच कफापहम् । शूलगुल्मरुजानाहकामलापांडुरोगहृत् || ६ || कषायं तिक्ततीक्ष्णं च पूरणात्कर्णशूलनुत् ॥ ७ ॥
सब मूत्रों में गुणों से गोमूत्र अधिक गुणवाला कहा है, इस लिये केवल मूत्र शब्द से गोमूत्र का ही प्रयोग करना चाहिये । गोमूत्र - प्लीहा, उदर, बास, कास, शोथ, बिबंध, शूल, गुल्म, अनाह कामला और पाण्डुरोमको दूर करता है । कषाय, तिक्त और गरम करके कान में डालने से कानके शूलको दूर करता है ॥ ५-७ ॥
नरमूत्रं गरं हंति सेवितं तद्रसायनम् । रक्तपामाहरं तीक्ष्णं सक्षारं लवणं स्मृतम् ॥ ८ ॥ गोजाविमहिषीणां तु स्त्रीणां मूत्रं प्रशस्यते । खरोष्ट्रेभनराश्वानां पुंसां मूत्रं हितं स्मृतम् ॥ ९ ॥
इति मूत्रवर्गः ।
मनुष्यका मूत्र सेवन करनेसे गरदोषको दूर करता है पौर रसायन है । तथा रक्तविकार और पामाको हरता है, तीक्ष्ण, क्षारयुक्त और नमकीन है ।
गौ, बकरी, भेड और भैंस इनमें खी-जातिका मूत्र ग्रच्छा होता है । गधा, ऊंट, मनुष्य और घोडा इनमें पुरुष जातिका मूत्र हितकारी होता है ॥ ८-९ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न पंडित रामप्रसादात्मज विद्यालङ्कार शिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ मूत्रवर्गः समाप्तः ॥ १६ ॥
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