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( ३३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। म्याधियों में, विसूचिका, मदात्ययमें, विवन्धमें और मन्दाग्निमें अधेक धृत नहीं खाना चाहिये ।। १५-२० ॥
इति श्रीवैद्यरत्नरामप्रसादात्मजविद्यालकारशिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृतशिवप्रकाशिका
भाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ घृतवर्गः समाप्तः ॥ १५ ॥
मूत्रवर्गः १६.
गोमूत्रम् । गोमूत्र कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तक फापहम् । लवग्निदीपनं मेध्यं पित्तकृतकफवातहत् ॥ १॥ शूलगुल्मोदरानाहकण्वनिमुखरोगजित् । किलासगदवातामबस्तिरुक्कुष्ठनाशनम् ॥२॥ कासश्वासापहं शोथकामलापांडुरोग हृव ॥ ३ ॥
कण्डूकिलासगुदशूलमुखाक्षिरोगान् गुल्मातिसारमरुदामयमूत्ररोधान् । कासं सकुष्ठ जठरक्रिमिपांडुरोगान्
गोमूत्रमेकमपि पीतमपाकरोति ॥ ४॥ गोमूत्र-कटु, तीक्षण, उष्ण, क्षार, तिक्त, कफनाशक, हल्का, पग्निदीपक, बुद्धिबर्द्धक, पित्तकारक, कफवातनाशक होता है । एवं शूल, गुल्म, उदररोग, पानाह, कंड्ड, अक्षिरोग, मुखरोग, किलास, प्रामवात, बस्तिरोग, कुष्ठ, कास, श्वास, शोथ, कामला, पाण्डुरोग इन सबको दूर करता है। कण्डू, किनास, अश, शून, मुखरोग, अक्षिरोग, गुल्म, अतिसार,