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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1
वृष्टिजलम् |
वार्षिकं तदहर्वृष्टं भूमिस्थमहितं जलम् ॥ ५७ ॥ त्रिरात्रमुषितं तत्तु प्रसन्नममृतोपमम् ।
( ३०३ )
आश्विन में वर्षाका जल भूमिपर गिरा हुआ जिस दिन वरसा हो उस दिन हानिकारक है तीन दिनके अनन्तर वह स्वच्छ होकर अमृतके समान होता है ॥ ५७ ॥
विहितजलम् ।
हेमन्ते सारसं तोयं ताडागं वा हितं स्मृतम् ॥ ५८ ॥ ते विहितं तोयं शिशिरेऽपि प्रशस्यते । वसन्तग्रीष्मयोः कौपं वाप्यं वा नैर्झरं जलम् ॥ ५९ ॥ नादेयं वारि नादेयं वसंतग्रीष्म योर्बुधैः । विषववृक्षाणां पत्राद्यैदूषितंयतः ॥ ६० ॥ औद्भिदं चांतरिक्ष वा कौपं वा प्रावृषि स्मृतम् । शस्तं शरदिनादेयं नीरमंशूदकं परम् ॥ ६१ ॥ दिवा रविकरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः । ज्ञेयमंशुदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम् ॥ ६२ ॥ अनभिष्यंदि निर्दोषमांतरिक्षजलोपमम् । बल्यं रसायनं मेध्यं शीतं लघु सुधासमम् ॥ ६३ ॥
हेमन्त ऋतु सारस और ताडाग जळ हितकारी है । हेमन्तमें विहित जल शिशिर में भी प्रशस्त है । वसन्त और ग्रीष्ममें कौप ( कुएका )वाप्य ( बावलीका ) और निर्झर जल देना योग्य है । विद्वानोंको वसन्त पौर ग्रीष्ममें नदीका जल प्रयोग में नहीं लाना चाहिये, क्योंकि इन ऋतुयोंमें विषैले वनके वृक्षोंके पत्रों से वह जल दूषित हो जाता है । प्रावृटू ऋतु मे
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