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(३०२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पन्य आचार्योंके मतमें जो गढ़ा शिला मादिसे बदन से वह चौंड्य कहलाता है। चौंडयका जल-अग्निदीपक, रूक्ष, कफनाशक, हलका, मधुर, पित्तनाशक, रुचिकारक पाचन और विशुद्ध होता है । ५०-५२ ॥
पाल्वलम् । अल्पं सरः पल्वलं स्याद्यत्र चन्द्रसंगे खौ। तत्तिष्ठति जलं किंचित्तत्रत्यं वारि पावलम् ॥१३॥ पाल्वलं वायंभिष्यदि गुरु स्वादु विदोषकृत । जिस छोटे तालाब में सूर्यके मृगशिर नक्षत्र में पाने पर जलन रहेउसको पलवल कहते हैं । पलपलका जल-अभिष्यन्दि, भारी, स्मादु तथा त्रिदोषकारक है ॥ ५३ ॥
. किरम् । नद्यादिनिकटे भूमिर्या भवेद्वालुकामयी ॥५४॥ उद्भाव्यते यत्तोय तु तज्जलं विकर विदुः । विकरं शीतलं स्वच्छं निर्दोष लघु च स्मृतम् ॥१५॥ तुवरं स्वादु पित्तघ्नं शारं तत्पित्तलं मनाक् । नद्यादिके समीपकी रेतेपाली पृथ्वीमेंसे खोद कर जो जन निकाला जाय उसको विकर,कहते हैं विकर जल-शीतल, स्वच्छ, निर्दोष, हलका, कसैला, स्वादु, पित्तनाशक, सबार मोर किंचित गरम है ॥ ५४ ॥ ५५॥
केदारम् । केदारं क्षेत्रमुदिध केदारं तजलं स्मृतम् ॥ १६॥
केदारं वार्यभिष्यंदि मधुरं गुरु दोषकृत् । १ खेतको केदार करते हैं। केदारका जल-अभि पन्दि, मधुर, भारी और दोषों को करनेवाला है। ५६ ! Shrutgyanam