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(३०४ ) .भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । भौद्भिद और प्रान्तरिक्ष अर्थात् पाकाशका और कूपका जल पीना योग्य है। शरद ऋतु में नादेय और अंशूदक पीना योग्य है । जिस जनके ऊपर दिनमें सूर्यकी तथा रात्रिमें चन्द्रमाकी किरणें गिरें उसे अंशूदक कहते हैं। अंशूदक- स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, पभिष्यन्दी, दोषरहित, आकाशके जलके ममान, बलकारक, रसायन, बुद्धिवर्धक, शीत, लघु और अमृतके समान होता है ॥ ५८--६३ ॥
सुश्रुतः।
पौषे वारि सरोजातं माघे तनु तडागजम् । फाल्गुने कूपसंभूतं चैत्रे चौंड्या हिमं मतम् ॥६४॥ वैशाखे नैसरं नीरं ज्येष्ठे शस्तं तथोद्भिदम् । आषाढे शस्यते कोपं श्रावणे दिव्यमेव च ॥ ६॥ भाद्रे कौपं पयः शस्तमाखिने चौंडयमेव च । कार्तिके मार्गशीर्षे च जलमात्रं प्रशस्यते ॥६६॥ मुश्रुत कहते हैं पौषमासमें सरोवरका, मायमें तडागका, फाल्गुनमें कूपका, चैत्रमें चौण्डयाका, वैशाखमें निर्झर (झरले ) का, ज्येष्ठमें भौद्भिद, आषाढमें कुएंका, श्रावणमें दिव्य (आकाशका) भाद्रपदमें कूपका, आश्विनमें चौण्याका और कार्तिक तथा मार्गशीर्ष में सर्व प्रकारका जल पीना योग्य है ॥ ६४-६६ ॥
जलग्रहणकालः। भौणनामभसा प्रायो ग्रहणं प्रातरिष्यते ।
शीतत्वं निर्मलत्वं च यतस्तेषां मता गुणाः ॥६७॥ भौम अर्थात् पृथ्वीके जलको प्रातःकाल ग्रहण करना चाहिये क्योंकि भौम जल उस समय शीतल और निर्मल होते हैं ॥ ६७ ॥