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________________ ( २८८ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी . । रक्तालुभेदः । रक्तालुभेदो या दीर्घा तन्वी च प्रथितालुकी ॥९७॥ आलुकी बलकुत्स्निग्धा गुर्वी हृत्कफनाशिनी । विष्टभकारिणी तैले तालतोऽतिरुचिप्रदा ॥ ९८ ॥ लम्बे भाकारका रक्तवर्ण कन्द रक्काल होता है । रक्तालू, दीर्घा, बालुकी, तम्बी यह रतादके नाम हैं। रतालू - बलकारक, स्निग्ध, भारी, हृदयके कफको दूर करनेवाला, और विष्टम्भकारी होता है। यदि इसको तेल में तलकर बनाया जाय तो अत्यन्त रुचिकारक होता है ।। ९७ । ९८ ॥ मूलकम् । मूलकं द्विविधं प्रोक्तं तत्रैकं लघुमूलकम् । शालामर्कटकं विस्रशालेयं मरुसंभवम् ॥ ९९ ॥ चाणक्यमूलकं तीक्ष्णं तथा मूलिकपोतिका नेपालमूलकं चान्यत्तद्भवेद्गजदंतवत् ॥ १०० ॥ लघुमूलं कटूष्णं स्याद्रुच्यं लघु च पाचनम् । दोषत्रयहरं स्वर्य्यं ज्वरश्वास विनाशनम् ॥ १०१ ॥ नासिका कण्ठरोगघ्नं नयनामयनाशनम् । महत्तदेव रूक्षोष्णं गुरुदोषत्रयप्रदम् ॥ १०२ ॥ स्नेहसिद्धं तदेव स्यादोषत्रयविनाशनम् । मूलक दो प्रकार की होती है। उनमें छोटी मूलीको शालामर्कट, बिनथालेप, मरुसंभव, चाणक्यमूलक, मूली और कपोतिका कहते हैं। जो हाथीदांत के समान बड़ी मुली हो उसको नेपाळमूलक कहते हैं। अंग्रेजीमें इसे Radish करते हैं। दोनों प्रकारकी मूलियां कच्ची अवस्थामें कटु, उष्ण, रुचिकारक, हलकी, पाचन, त्रिदोषनाशक, स्वरकारक, ज्वरनाशक, पर्वश्वास,
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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