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( २३६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
तन स्रोतोंजनं कृष्णं सौवीरं श्वेतमीरितम् ॥१३६॥ वल्मीक शिखराकारं भिन्नमंजनसन्निभम् । घृष्टं तु गैरिकाकारमेतत्स्रोतोंजनं स्मृतम् ॥१३७॥ स्रोतोंजनसमं ज्ञेयं सौवीरं तत्र पांडुरम् । स्रोतोंजनं स्मृतं स्वादु चक्षुष्यं कफपित्तनुत् ॥ १३८ ॥ कषायं लेखनं स्त्रिग्धं ग्राहि च्छर्दिविषापहम् । सिध्मक्षयास्रहृच्छीतं सेवनीयं सदा बुधैः ॥ १३९ ॥ स्रोतों जनगुणाः सर्वे सौवीरेऽपि मता बुधैः । किंतु द्वयोरंजनयोः श्रेष्ठ स्रोतोंजनं स्मृतम् ॥ १४० ॥
अंजन, यामुन, कपोतांजन, स्रोतोऽञ्जन यह अअनके नाम हैं। स्रोतोअन और सौवीरांजन भेदसे यह दो प्रकारका होता है । स्रोतोऽखन काला और सौवीरांजन सफेद रंग का होता है । स्रोतोञ्जन बम्बीके शिखरके आकारका, तोडनेसे काले अञ्जनके समान पर घिसने से गेरूके समान कठोर होता है। सौवीरांजन स्रोतोञ्जनके समानही होता है परन्तु किञ्चित पाण्डुपन लिये होता है । स्रोतोअन स्वादु, नेत्रहितकर, कफ पित्त नाशक, कषाय, लेखन, स्निग्ध, ग्राही, वमन और विषको हरनेवाला खींप, क्षय, रक्तविकारको हरनेवाला और शीतल स्वभाववाला है । विद्वानोंको नित्य यह भञ्जन नेत्रोंमें डालना चाहिये । स्रोतोञ्जनके समान ही सब गुण सौवीरांज में हैं। किन्तु दोनोंमें स्रोतोञ्जन श्रेष्ठ माना जाता है । १३६ - १४० ॥
टंकणम् ।
टंकणोऽकरो रूक्षः कफघ्नोवातपित्तकृत् ।
टंगण ( सुहागा ) अग्नि कारक, रूक्ष, कफनाशक और बात पित- कारक है ।
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