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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३५) हा है । हरिताल-कटु, स्निग्ध, कषाय और उच्य होती है । तथा विष, कण्डू, कुष्ठ, मुखरोग, । क्तविकार, कफ, पित्त, केश और व्रोको नष्ट करती है।
अशुद्ध और विना उत्तम भस्म बनाये मेवन की हुई हडताल, देहके सौन्दर्यको नष्ट करती है, शरीरमें तापको उत्पन्न करती है, कामशक्तिको नष्ट करती हैं। कफ, बात और कुष्ठ आदि रोगोंको उत्पन्न करती है। इस लिये अशुद्ध पौर विना उनम भस्म बनाये हडतालका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ १२८-१३२ ॥
मनः शेला। मनःशिला मनोगुप्ता मनोह्वा नागजिह्निका । नेपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौपधिः स्मृता१३३॥ मनःशिला गुरुर्वण्या सरोष्णा लेखनी कटुः । तिक्तास्निग्धा विषश्वासकासभूतकफास्रनुत् ॥ १३॥ मनःशिला मंदबलं करोति जंतुं ध्रुव शोधनमंतरेण । मलानुबंधं किल मूत्ररोध सशकरंकृच्छ्रगदचकुयात॥ मनःशिला, मनोगुमा, मनोहा, नागजिहिका, नेपाली, कुनटी, गोला, शिला पौर दिव्यौषधि यह मैनसिलके नाम हैं। अंग्रेजीमें इसे Realgar कहते हैं। - मैनसिल-भारी, वर्णकारक, दम्ताधर, उष्ण, लेखन, कटु, तिक्त और स्निग्ध है। तथा विष, श्वास, कास, भूतवाधा, कफ और रक्तविकारको नाश करनेवाला है।
विना शोधन किया हुआ मैनसिल-बलहानिकारक, विबन्धकारक, मूत्ररोधक, मूत्रकृच्छ, और शर्करा रोगको करनेवाला होता है॥ १३३-१३५॥
अंजन, सौवीरम । अंजनं यामुनं चापि कापोतांजनमित्यपि।